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युक्त्यनुशासन
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कहलाते थे | उन्हे 'आद्यस्तुतिकार' होने का भी गौरव प्राप्त था ' । अपनी इस अद्भक्ति और लोकहितसाधनकी उत्कट भावनाओके कारण वे को इस भारतवर्ष मे 'तीर्थङ्कर' होनेवाले है, ऐसे भी कितने ही उल्लेख अनेक ग्रन्थोमे पाये जाते है । साथ ही ऐसे भी उल्लेख मिलत है जो उनके 'पर्दाद्धक' अथवा 'चाररणऋद्धि' से सम्पन्न होने के सूचक है ।
श्रीसमन्तभद्र 'स्वामी' पदसे खास तौरपर अभिभूषित थे और यह पद उनके नामका एक अंग ही बन गया था । इसीसे विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे कितने ही श्राचार्यों तथा पं० आशाधरजी जैसे विद्वानोने अनेक स्थानोपर केवल स्वामी' पदके प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है । निःसन्देह यह पद उस समयकी दृष्टिसे आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है। आप सचमुच ही विद्वानोके स्वामी थे, त्यागियो के स्वामी थे, तपस्वियोके स्वामी थे, योगियोके स्वामी थे, ऋषि-मुनियोके स्वामी थे, सद्गुणियोके स्वामी थे, सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियो के स्वामी थे। आपने अपने अवतारसे इस भारतभूमिको विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी में पवित्र किया है। आपके अवतार भारतका गौरव बढ़ा है और इसलिये श्री शुभचन्द्रासे चार्यने पाण्डवपुराणमे, आपको जो 'भारतभूषण' लिखा है वह सब तरह यथार्थ ही है ।
देहली
जुगलकिशोर मुख्तार
ता० ४-७-१६५१
१३ देखो, स्वामी समन्तभद्र पृ० ६६, ६२, ६१ ( फुटनोट )
४ आजकल तो 'कवि' और 'पण्डित' पदोकी तरह 'स्वामी' पदका
भी दुरुपयोग होने लगा है।