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समन्तभद्र-परिचय
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साधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी योग्यताके साथ उनका सम्पादन करते थे। उनकी वाकपरिणति सदा क्रोधसे शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे और न दूसरोके अपशब्दोसे उनकी शान्ति भंग होती थी। उनकी ऑखोमे कभी सुखी नहीं आती थी, वे हमेशा हँसमुख तथा प्रसन्नवदन रहते थे। बुरी भावनासे प्रेरित होकर दूसरोके व्यक्तित्वपर कटाक्ष करना उन्हे नही आता था और मधुर भाषण तो उनकी प्रकृति मे ही दाखिल था। यही वजह थी कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके सामने आकर मृदुभाषी बन जाते थे, अपशब्द-मदान्धोको भी उनके आगे बोल तक नही आता था और उनके 'वज्रपात' तथा वजाकुश' की उपमाको लिये हुए वचन भी लोगोको अप्रिय मालूम नही होते थे।
समन्तभद्रके वचनोमे एक खास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वाद-न्यायकी तुलामे तुले हुए होते थे और इसलिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नही पाता था। ममन्तभद्र स्वय परीक्षा-प्रधानी थे, वे कदाग्रह को बिल्कुल पसन्द नही करते थे, उन्होने सर्वज्ञवीतराग भगवान महावीर तककी परीक्षा की है और तभी उन्हें 'आप्त' रूपमे स्वीकार किया है। वे दूसरीको भी परीक्षाप्रधानी होनेका उपदेश देते थे-सदैव उनकी यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व अथवा सिद्धान्तको विना परीक्षा किये केवल दूसरोके कहनेपर ही न मान लेना चाहिये बल्कि ममर्थ-युक्तियोके द्वारा उसकी अच्छी तरहसे जॉच करनी चाहिये-उसके गुण-दोषोका पता लगाना चाहिये और तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये। ऐसी हालतमे वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दूसगेके गले उतारने अथवा उनके सिर मॅढनेका कभी यत्न नहीं करते थे। वे विद्वानो