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युक्त्यनुशासन
याहुयाध होती अथवा
यहाँ मध्य और अन्त्यके पद्योंसे यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थ वीरजिनका स्तोत्र होते हुए भी 'यक्त्यनुशासन' नामको लिये हुए है अर्थात् इसके दो नाम है-एक 'वीरजिनस्तोत्र' और दूसरा 'युक्त्यनुशासन'। समन्तभद्रके अन्य उपलब्ध ग्रन्थ भी दो दो नामोंको लिये हुए है, जैसा कि मैंने 'स्वयम्भूस्तोत्र' की प्रस्तावनामे व्यक्त किया है । पर स्वयम्भूस्तोत्रादि अन्य चार ग्रन्थों में ग्रन्थका पहला नाम प्रथम पद्य द्वारा और दूसरा नाम अन्तिम पद्य-द्वारा सूचित किया गया है और यहाँ आदि-अन्तके दोनो ही पद्योंमें एक ही नामकी सूचना की गई है, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या 'युक्त्यनुशासन' , यह नाम बादको श्रीविद्यानन्द या दूसरे किसी
आचायके द्वारा दिया गया है अथवा ग्रन्थके अन्य किसी पद्यसे इसकी भी उपलब्धि होती है ? श्रीविद्यानन्दाचार्य के द्वारा यह नाम दिया हुआ मालूम नहीं होता, क्योंकि वे टीकाके आदि मंगल पद्यमे 'युक्त्यनुशासन' का जयघोष करते हुए उसे स्पष्ट रूपमे समन्तभद्रकृत बतला रहे हैं और अन्तिम पद्यमे यह साफ घोषणा कर रहे है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वकी समीक्षा करके श्रीवीरजिनेन्द्रके निर्मल गुणों के स्तोत्ररूपमे यह 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थ कहा है। ऐसी स्थितिमें उनके द्वारा इस नामकरणकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। इसके सिवाय, शकसंवत् ७०५ (वि सं. ८४०) मे हरिवंशपुराणको बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने 'जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् , वचः समन्तभद्रस्या इन पदोंके द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दोंमे समन्तभद्रको 'जीवसिद्धि' प्रन्थका विधाता और 'युक्त्यनुशासन' का कर्ता बतलाया है। इससे भी यह साफ जाना जाता है कि 'युक्त्यनुशासन' नाम श्रीविद्यानन्द अथवा श्रीजिनसेनके द्वारा बादको दिया हुआ नाम नहीं है, बल्कि ग्रन्थकार द्वारा स्वयका ही विनियोजित नाम है।
अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थके किसी दूसरे पद्यसे इस