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युक्त्यनुशासन
और वे वास्तवमे कितने अधिक महत्वको लिये हुए थे, इन सब बातोका कुछ अनुभव करानेके लिये कितने ही प्रमाण-वाक्योको 'स्वामी समन्तभद्र, नामके उस ऐतिहासिक निबन्धमे संकलित किया गया है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालामे प्रकाशित हुए रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी विस्तृत प्रस्तावनाके अनन्तर २५२ पृष्ठोपर जुदा ही अङ्कित है और अलगसे भी विषयसूची तथा अनुक्रमणिकाके साथ प्रकाशित हुआ है । यहाँ संक्षेपमे कुछ थोडासा ही सार' दिया जाता है और वह इस प्रकार है:
(१) भगवज्जिनसेनने, आदिपुराण मे, समन्तभद्रको 'महान् कविवेधा'-कवियोको उत्पन्न करनेवाला महान् विधाता (ब्रह्मा) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे ।
(२) वादिराजसूरिने, यशोधरचरितमे,समन्तभद्रको 'काव्यमाणिक्योका रोहण' (पर्वत) लिखा है और यह भावना की है कि 'वे हमे सूक्तिरत्नोके प्रदान करनेवाले होवे'।
(२) वादीभसिह सूरिने, गद्यचिन्तामणिमे, समन्तभद्रमुनीश्वरका जयघोष करते हुए उन्हे 'सरस्वतीकी स्वछन्द-विहारभूमि' बतलाया है और लिखा है कि 'उनके वचनरूपी वजके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्त-रूप पर्वतोकी चोटियाँ खण्ड-खण्ड हो गई थी अर्थात् समन्तभद्रके आगे प्रतिपक्षी सिद्धान्तोका प्रायः कुछ भी मूल्य या गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुह करके ही सामने खड़े हो सकते थे।'
१ इस सारके अधिकाश मूल वाक्योंका परिचय 'सत्साधुस्मरणमगलपाठ' के अन्तर्गत 'समन्तभद्र-स्मरण' नामक प्रकरणसे भी प्राप्त किया जा सकता है।