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सम्पादकीय
लम्बे कारावासके बाद बाहर आने पर जब में परिवर्तित परिस्थितियोंमें अपने आपको समन्वित करने की उधेड़-बुन में था, उसी समय भारतीय दिगम्बर जैन-संघकी कार्यकारिणीमें मेरठ तथा दिल्ली जाना पड़ा था। प्रवास तथा विचरणने वर्षोंकी बद्धतासे उत्पन्न जड़ एकतानता से मुक्ति दी। और मैं भावी जीवन-क्रम की रूप-रेखा बना कर जब काशी वापस आया तो मुझे कुछ कागजात तथा एक सूचना मिली। यह सूचना मेरे अग्रज मित्र पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, संयुक्तमंत्री 'श्री वर्णी हीरक जयन्ती-महोत्सव-समिति-सागर' का आदेश था। उन्होंने लिखा था "श्री वर्णी ही. ज. म. स. के निर्णयानुसार मैंने यहां (काशी) आकर एक विचार समिति की। इसमें पं. फूलचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमार जी, पं. राजकूमारजी प्रभति अनेक विद्वान उपस्थित थे। आप दोनों भाइयोंके परामर्श का अनुपस्थितिके कारण लाभ न उठा सके । इस विचार-समिति ने ही. ज. म. समिति के इक्कीस सदस्यों युक्त 'वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ-समिति' वाले निर्णयका स्वागत किया है और आपको उसका संपादक तथा संयोजक बना कर ग्रन्थका पूरा दायित्व आप पर रक्खा है। आशा है आप निराश न करेंगे।" इसे देखते ही २७ जुलाई, सन् १९२८ की रात्रि, मुगलसरायका जंकशन, मझे पुकारता अपरिचित युवक, ड्योढ़े दरजे में बैठे पूज्य वर्णी जी, अपनी आकुलता, उनके साथ भदैनी (काशी) आना, स्याद्वाद दि. जैन-विद्यालय और उसमें विताये जीवननिर्मापक ग्यारह वर्ष; मेरे मानस-क्षितिज पर द्रुतगति से घूम गये। यद्यपि उक्त विचार-समितिका रूप मनमें अनेक आशंकाएं उत्पन्न करता था तथापि वर्णीजी और स्याद्वाद विद्यालयका तादात्म्य भी स्पष्ट एवं आकर्षक था । मुझे इस प्रयत्न के करने में समाज-ऋण से अपनी निश्चित मुक्ति देखने में एक क्षण भी न लगा। कार्य की गुरुता, दि. जैन समाजकी शिथिल सामाजिक दायित्व-वृत्ति की स्मृति तथा परिणाम स्वरूप अपनी मान्यताके अनुरूप ग्रन्थ तयार न कर सकने का विचार उक्त विवेक पर पटाक्षेप करना ही चाहता था कि "भैआ जो को आय?" स्व. बाई जी द्वारा भेलपुर में पूछे जाने पर “अपनोइ बच्चा आय । य??? आपसें नई कई जो हमारे साथी फन्दीलाल सावको नन्नो लरका तो आय।" कहते पू० वर्णी जी याद आये और मैने नतमस्तक हो कर पं० पन्नालालजी के स्नेह-आदेश को स्वीकार कर लिया।
यतः इक्कीस आदमियों की 'ग्रन्थ समिति' ग्रन्थके बौद्धिक निर्माणके लिए सरलतासे समयसमय पर नहीं मिल सकती थी अतः मैने कटनीमें इसकी प्रथम बैठक बुलायी। इसने सर्व श्री डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कोल्हापूर, पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य तथा प्रो० खुशालचन्द्र बनारस, इन पांच सज्जनों का सम्पादक मण्डल बनाया। तथा निर्णय किया कि ग्रन्थके बौद्धिक कलेवरका पूर्ण दायित्व प्रो० खुशालचन्द्रपर हो जो कि अपने सहयोगियों से यथायोग्य सहयोग लेते हुए इस कार्य को पूर्ण करेंगे।
___ फलतः इस प्रवाससे लौटते ही मैने सम्पादक-मण्डलकी प्रथम बैठक बनारसमें बुलायी। डा० उपाध्ये यद्यपि इस बैठकम भी सम्मिलित न हो सके थे तथापि उन्होंने जो स्पष्ट एवं मैत्रीपूर्ण सम्मति दी थी उसने मुझे समय-समय पर पर्याप्त उत्साह दिया है। उन्होंने लिखा था "स्थान की दूरी तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण आपको मेरा सक्रिय सहयोग नहीं ही मिल सके गा। ऐसे