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पर्यंत मौन धारण किया। मात्र साधुओंके साथ आवश्यकतानुसार बोलनेकी तथा श्रीमद्के साथ परमार्थ हेतु प्रश्नादि करनेकी छूट रखी थी। 'समाधिशतक'का वाचन भी अब प्रारंभ किया। इससे स्वयंको अपूर्व शांतिका वेदन होता था, यों उन्होंने उस समयका वर्णन करते हुए कई बार कहा था।
सं.१९५० और १९५१के दोनों चातुर्मास सूरतमें हुए थे। सूरतमें वेदांत ग्रंथों तथा कुछ वेदान्तियोंका परिचय हुआ। जिससे देवकरणजी स्वामी अपनेको परमात्मा मानते और वैसा ही कहते । श्री लल्लजीने श्रीमद्को यह बात लिखकर बतायी थी। उसके उत्तरमें उन्होंने लिखा था कि "ज्ञानीपुरुषके समागमकी उपासनाके बिना जीव स्वच्छंदसे जो निश्चय करता है, वह छूटनेका मार्ग नहीं है। सभी जीव परमात्मस्वरूप हैं इसमें संशय नहीं है, तो फिर श्री देवकरणजी अपनेको परमात्मस्वरूप मानें तो यह बात असत्य नहीं है, किन्तु जब तक वह स्वरूप यथातथ्य प्रगट न हो तब तक मुमुक्षु-जिज्ञासु रहना अधिक अच्छा है और इसी मार्गसे यथार्थ परमात्मस्वरूप प्रगट होता है। इस मार्गको छोड़कर प्रवृत्ति करनेसे उस पदका भान नहीं होता, तथा श्री जिन वीतराग सर्वज्ञ पुरुषोंकी असातना करनेरूप प्रवृत्ति होती है। अन्य कुछ मतभेद नहीं है। मृत्यु अवश्य आनेवाली है।" यह पढ़कर वे सावधान हुए।
एक दिन श्रीमद् सूरत पधारे तब मुनियोंके पास आये। उस समय श्री देवकरणजीने प्रश्न पूछा, “मैं व्याख्यान देकर आता हूँ तब श्री लल्लुजी महाराज मुझे कहते हैं कि मैंने अभिमान किया, जब ध्यान करता हूँ तब उसे तरंग कहते हैं, तो क्या वीतराग प्रभु ऐसे पक्षपातवाले होंगे कि इनकी क्रियाको स्वीकारें और मेरी क्रियाको स्वीकार न करें?"
श्रीमद्ने शांतिसे उत्तर दिया, “स्वच्छंदसे जो कुछ भी किया जाता है वह सब अभिमान ही है, असत्साधन है और सद्गुरुकी आज्ञासे जो किया जाता है वह कल्याणकारी धर्मरूप सत्साधन है।"
सुरतमें श्री लल्लजी स्वामीको दस-बारह माहसे बुखार आता था। इसी समय सूरतके एक लल्लभाई झवेरी दस-बारह माहकी बीमारी भोगकर मर गये थे। तबसे श्री लल्लुजी स्वामीको चिन्ता होने लगी कि शायद यह शरीर छूट जायेगा। अतः परमकृपालु श्रीमद्जीको मुंबई पत्र-पर-पत्र लिखकर विनती की कि "हे नाथ! अब यह शरीर नहीं बचेगा और मैं समकितके बिना जाऊँगा तो मेरा मनुष्यभव व्यर्थ चला जायेगा। कृपा करके अब मुझे समकित दीजिये।" इसके उत्तरमें श्रीमद्ने अनन्त कृपा करके 'छह पद' का पत्र लिखा और साथ ही बताया कि शरीर छूटनेका भय कर्तव्य नहीं है। श्रीमद् स्वयं दुबारा सूरत पधारे तब उस 'छह पद के पत्रका विशेष विवेचन कर उसका परमार्थ श्री लल्लुजी स्वामीको समझाया और उस पत्रको कण्ठस्थ करके उसपर बारंबार विचार करनेका अनुरोध किया। ____ 'छह पद'के पत्रके सम्बन्धमें श्री लल्लजी स्वामी अपने अन्तिम वर्षोंके उपदेशमें बारंबार कहते थे कि “यह पत्र हमारी अनेक प्रकारकी विपरीत मान्यताओंको दूर करनेवाला है। न स्थानकवासीमें रहने दिया, न तप गच्छमें रखा, न ही वेदान्तमें पैठने दिया। किसी भी मतमतान्तरमें प्रवेश न करवाकर, मात्र एक आत्मापर लाकर खड़ा कर दिया। यह चमत्कारी पत्र है। जीवकी योग्यता हो तो सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय ऐसे विचार उत्पन्न करानेवाला यह अद्भुत पत्र है। इसे कण्ठस्थ करके इसपर बारंबार विचार करते रहना चाहिए।"
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