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ताओ उपनिषद भाग ४
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देख सकता हूं, मन से सोच सकता हूं। लेकिन स्वयं को जानने में न तो इंद्रियां काम आएंगी, न तो आंख काम आएगी और न मेरा मन ही काम आएगा। क्योंकि दूसरे के संबंध में सोचा जा सकता है, स्वयं के संबंध में कुछ भी सोचा नहीं जा सकता। और जब तक आप सोचते हैं तब तक स्वयं से कोई संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक आप सोचते हैं तब तक आप स्वयं के बाहर होते हैं। विचार जब तक मौजूद होता है तब तक आप अपने आंतरिक केंद्र पर नहीं हैं, परिधि पर घूम रहे हैं। क्योंकि विचार भी एक बेचैनी है; विचार एक तनाव है । कहें कि विचार एक तरह का ज्वर है, एक बुखार है, एक आंतरिक उद्वेग है। इसलिए अगर विचार तेज चल रहे हों तो रात आप सो नहीं सकते; क्योंकि विचार विश्राम नहीं है। और स्वयं के आंतरिक केंद्र पर तो परम विश्राम की अवस्था में ही कोई पहुंचता है। जितना तनाव होता है, उतनी दूरी होती है।
इसलिए पागल स्वयं से सर्वाधिक दूर होता है । पागलपन का अर्थ ही यह है कि आपसे अब स्वयं के सारे संबंध छूट गए। अब आपकी कोई भी जड़ अपने केंद्र में न रही। अब आप उखड़ गए, अपरूटेड – जमीन से जड़ें अलग हो गईं। पागल अपने से सर्वाधिक दूर है, क्योंकि पागल का विचार एक क्षण को भी बंद नहीं होता, चलता ही रहता है सतत । आप भी अपने से उसी मात्रा में दूर हैं जिस मात्रा आपके भीतर मौन की कमी है।
विचार से मैं दूसरे को जान सकता हूं, लेकिन विचार से स्वयं को नहीं जान सकता।
इसलिए सब बुद्धिमत्ता, जिसको लाओत्से ने कहा है विद्वत्ता, विचार पर निर्भर होती है। और ज्ञान निर्विचार पर निर्भर होता है। इसलिए हम बुद्ध को विद्वान नहीं कह सकते, महावीर को विद्वान नहीं कह सकते। अरिस्टोटल विद्वान है, प्लेटो विद्वान है । बुद्ध और महावीर विद्वान नहीं हैं, ज्ञानी हैं।
जो फर्क है - विद्वत्ता विचार का जोड़ है; और ज्ञान निर्विचार की स्फुरणा है, जहां सब इंद्रियां शांत होती हैं। क्योंकि इंद्रियों से दूसरे को जान सकते हैं। और जब तक इंद्रियां अशांत हों तब तक बाधा डालेंगी; क्योंकि उनकी अशांति बाहर ले जाएगी। इंद्रियों की अशांति बाहर ले जाएगी; वे बाहर जाने वाले द्वार हैं।
जब तक मन चल रहा है तब तक भी स्वयं को न जान सकेंगे। क्योंकि मन का चलना परिधि पर रोके रखेगा। जब इंद्रियां चुप हो गईं और मन भी मौन हो गया, और जब भीतर कोई गति न रही, किसी तरह का हलन चलन न रहा, कोई स्पंदन न रहा, कोई लहर न रही, जब भीतर आप मात्र रह गए, जहां कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई कर्म नहीं हो रहा है भीतर, पूर्ण अकर्म हो गया, उस क्षण में आपको अपने केंद्र से विच्युत करने को कोई भी न रहा; कोई लहर आपको बाहर नहीं खींच सकती। उस क्षण ज्ञान का जन्म है।
विद्वान होना हो, शास्त्र सहयोगी हैं, शिक्षण उपयोगी है, सीखना जरूरी है। ज्ञानी होना हो, शास्त्र खतरनाक हैं, बाधा हैं; शिक्षा व्यर्थ ही नहीं, हानिकर है। सीखने की कोई सुविधा नहीं है। अनसीखना करना होता है । लर्निंग नहीं, अनलर्निंग; जो सीखा है उसे भी भूल जाना होता है; जो जाना है उसका भी त्याग कर देना होता है।
और ध्यान रहे, जगत में ज्ञान का त्याग बड़ा मुश्किल है। धन छोड़ा जा सकता है; पद छोड़ा जा सकता है। क्योंकि पद को छोड़ने में भी बड़े पद के मिलने की आशा है, और धन को छोड़ने में भी महाधन को पाने की संभावना है। क्योंकि धनी भी सोचता है मन में कि गरीब सुखी है। धनी भी – सच तो यह है धनी ही — गरीब तो कभी नहीं सोचता कि गरीब भी सुखी है। धनी अक्सर सोचता है कि गरीबी में बड़ा सुख है । ठीक वैसे ही जैसा गरीब सोचता है कि अमीरी में बड़ा सुख है। जो हमारे पास नहीं उसमें सुख दिखाई पड़ता है।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि अगर गरीब सोचता है कि अमीरी में सुख है, तो ज्ञानी - तथाकथित विद्वान, ज्ञानी नहीं कहना चाहिए - वे उसको समझाते हैं कि तू पागल है। लेकिन जब धनी सोचता है कि गरीबी में सुख है, तो ये ही महात्मागण उसको नहीं समझाते कि तू भी पागल है। बात दोनों की एक सी है : जो उनके पास नहीं