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ओ है सागर की भांति। नदियां सागर से पैदा होती हैं और सागर में पुनः खो जाती हैं। ताओ से अर्थ है उस मूल उदगम का, जहां से जीवन पैदा होता है; और उस अंतिम विश्राम का भी, जहां जीवन विलीन हो जाता है। ताओ आदि भी है और अंत भी। प्रारंभ भी वही है और समाप्ति भी वही। यह जो ताओ का केंद्र है या धर्म का या सत्य का, इसे हम जन्म के साथ ही लेकर पैदा होते हैं; वह हमारे जन्म के पहले भी मौजूद है। और उसे हम अपने साथ लेकर ही मरते हैं; वह मृत्यु के बाद भी हमारे साथ यात्रा पर होता है। जो हमारे भीतर न कभी जन्मता है और न कभी मरता है, वही धर्म है। और उसे जान लेना ही जानने योग्य है। इस सूत्र में उस आंतरिक केंद्र की तरफ बहुत बहुमूल्य इशारे हैं। पहला इशारा : 'जो दूसरों को जानता है वह विद्वान है; और जो स्वयं को
जानता है वह ज्ञानी।' दूसरों को जानना बहुत आसान है। क्योंकि दूसरों को जानने के लिए इंद्रियां काम में आ जाती हैं। आंख है मेरे पास, मैं आपको देख सकता हूं। लेकिन यह देखने वाली आंख स्वयं को देखने के काम न आएगी। कान हैं मेरे पास, मैं आपको सुन सकता हूं। लेकिन ये कान स्वयं को सुनने के काम न आएंगे। हाथ हैं मेरे पास, मैं आपको छू सकता हूं। लेकिन मेरे ही हाथ हैं, मैं स्वयं को छूने में असमर्थ हूं। इंद्रियां दूसरे को जानने का द्वार हैं। इंद्रियां हमें उपलब्ध हैं; हम दूसरे को सहजता से जान लेते हैं।
और दूसरे को जानने की इस दौड़ में हम यह भूल ही जाते हैं कि हम स्वयं से अनजान रह गए। स्वयं के संबंध में भी जो हम जानते हैं, वह भी हम दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। अगर आप सोचते हैं कि आप सुंदर हैं, तो यह दूसरों ने आपसे कहा है कि आप सोचते हैं कि आप विचारशील हैं, यह भी दूसरों ने आपसे कहा है कि आप सोचते हैं कि आप बुद्धिहीन हैं, तो यह भी दूसरों ने आपको समझाया है। आपकी स्वयं के संबंध में जो जानकारी है वह दूसरे के माध्यम से है, दूसरे के द्वारा उपलब्ध हुई है।
इसलिए हम स्वयं की जानकारी पर भी दूसरे पर निर्भर रहते हैं, और दूसरे से भयभीत भी रहते हैं। अगर मेरा सौंदर्य आपके ऊपर निर्भर है तो मैं भयभीत रहूंगा। क्योंकि आपकी नजर की जरा सी बदलाहट, और मेरा सौंदर्य खो जाएगा। और अगर मेरी बुद्धिमानी आपके आधार पर बनी है, आप कभी भी ईंटें बुनियाद की खींच ले सकते हैं और मेरी बुद्धिमत्ता खो जाएगी। मेरी प्रतिष्ठा में अगर आप कारण हैं तो वह कोई प्रतिष्ठा ही नहीं, वह गुलामी है। अगर मेरी प्रतिष्ठा किसी पर भी निर्भर है तो मैं उसका गुलाम हूं। और गुलामी की क्या प्रतिष्ठा हो सकती है? स्वयं के संबंध में भी हम दूसरे के माध्यम से जानते हैं। इसलिए स्वयं के संबंध में जो भी हम जानते हैं, वह गलत है।
फिर और भी कारण समझ लेने जरूरी हैं। मैं आपको जान सकता हूं; मेरे पास इंद्रियां हैं, मन है। आंख से