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मध्यमस्मद्वादरहस्ये खण्डः २
द्वियंकृसामान्य है । स्वयं द्रव्य न होते हुए भी द्रव्य की भाँति गुण पर्याय धर्मी तो हो सकते ही हैं। चिरकालस्थायी मनुष्यपयांच भी बाल युवा वृद्ध आदि परिणाम धर्म का आधार होने से धर्मी तो चिना किसी हिचकिचाहट के कहा जा सकता है । अतएव उसमें कतासामान्यपद प्रतिपाद्यता भी निराबाध है । एवं एककालीन अनेक वेन गुण श्वेतत्व धर्म का आश्रय होने से धर्मी तो है ही अतएव उसमें रहा हुआ शुरुतत्व तिर्यक् सामान्यशब्द से अभिलाप्यई । इस गंभीर तत्व के परिवेषणार्थं श्रीमद्जी ने केवल इतना ही कहा कि 'सूत्रस्थ पद पfर्मपरक है। यही महोपाध्यायजी की विशेषता है कि जितना अर्धप्रतिपादन शब्द से करते हैं उससे अधिक अर्थ शब्द में ही निहित रखते हैं।
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सूक्ष्म एवं स्पष्ट रूप से यह विवेचन करने की क्षमता जो नयन्याय की पारिभाषिक पदावली में वह प्राचीन परिभाषा में नहीं है । अतएव श्रीमद्जी के साहित्य से लाभान्वित होने के लिये नवीन न्याय का अध्ययन अपरिहार्य है । नव्यन्यायदर्शन की परिभाषा को अपना कर भर स्वसिद्धांतों का सन्तुलन रख कर सपरिष्कार निर्दोषप्रतिपादन का बहुत कठिन है, मगर श्रीमद्जी इसमें सफल रहे हैं ।
बाद में प्रवचनसार ग्रन्थ का हवाला देकर दिगम्बरमतानुसार स्वरूप अस्तित्व का प्रतिपादन कर के उस पर अपनी स्वतंत्र मीमांसा का भी श्रीमद्जी ने दर्शन कराया है ( पृष्ठ ४८४) । आगे चल कर (पृ. ४८५) नैयायिकसम्मत सादृश्यपदार्थ का निरूपण एवं निराकरण कर के जनमतानुसार सङ्ग्रह नय के अवलम्बन से सादृश्यपदार्थ को प्रकाशित किया है। न्यायवैशेषिकदर्शन अभिमत विशेषपदार्थ का तो श्रीमद्जी ने कचुंबर निकाला है ( पृष्ठ-५०५ ) ।
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अन्यत्र
इस सप्तम श्लोक का महत्वपूर्ण वाहस्थल है (४-५२४) अभिलाप्यत्वपदार्थपरीक्षण, जो इस तरह सूक्ष्मरूप से न्य मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। यह वादस्थल वृहत्कल्प भाष्य के वचनों की सूक्ष्म मीमांसा से भरा हुआ है। शब्द की प्रमाण नहीं मानने वाले बीद्धों का निराकरण श्रीमद्जी ने शब्दाद्वैतवादी की युक्ति से किया है, उससे यह जानकारी सुज्ञ जनों को मिल सकती है कि 'स्याद्वाद को केन्द्र में रख कर किस तरह परदर्शन को भी मान्यता दी जाय ?' -> केवली की देशना शब्दात्मक नहीं है किन्तु ध्वनिस्वरूप है, जो शब्दात्मना परिणत हो कर श्रोताओं का विषय बनती है; क्योंकि शब्द का कारण है इच्छा, जो रागात्मक होने से केवली में नहीं हो सकती । बिना कारण के, केवली शब्दों का प्रयोग कैसे कर सकते हैं? यदि ऐसा न माना जाय और केवली को वक्ता माना जाय तब तो उनमें पीता का ही विच्छेद हो जायेगा यह दिगम्बरमत है जिसका खण्डन महोपाध्यायजी ने इस तरह किया है कि वर्णमात्र के प्रति प्रयत्न कारण है और प्रयत्न का कारण इच्छा है फिर भी वीतराग केवली शब्द प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि केवली में मोहाभिव्यक्त चैतन्यविशेषात्मक इच्छा न होने पर भी मोहानभिव्यक्त चेतन्यविशेषात्मक इच्छा तो निराबाध है। इच्छामात्र अभिष्वात्मक ही होती है यह कोई नियम नहीं है। निरुपाधिकपरदुः प्रहाणेच्छा करुणात्मक है, न कि रागात्मक विस्तार से इस वय का निरूपण अध्यात्ममतपरीक्षा, स्याद्वादकल्पलता, तत्त्वार्थनव्यटीका आदि में श्रीमद्जी ने ही किया है ।
आगे चल कर सप्तम कारिका के उत्तरार्द्ध की विभिन्न व्याख्याओं का आविर्भाव किया गया है। बाद में सामान्य विशेष में विरोध के परिहारार्थं मयूरपंख आदि मेचक पदार्थों का दृष्टान्त बता कर सप्तम लोक का विवरण समाप्त किया ६ (पृष्ठ-५४५) । अएम कारिका में विज्ञान को साकार एवं निराकार, एकाकार और अनेकारात्मक मानने वाले बीज मनीषी भी किस तरह अनेकान्तवाद की नींव पर खड़ें हैं ? यह बता कर अनेकान्तवाद की सर्वदर्शन में व्यापकता का समर्थन किया गया है। वीतरागस्तोत्र के अष्टमप्रकाश की ४-५-६-७ कारिका के (म) स्याद्भादरहस्यनामक महोपाध्यायकृत विवरणग्रन्थ के विषयों का यहाँ जो निर्देश किया गया है वह संक्षिप्त विवेचन हुआ । उससे ज्ञात उपाध्यायजी की कलम की कुछ कमाल से सुज्ञ वाचकों के दिमाग में 'पूरे ग्रन्थों नव्यन्याय की परिभाषा में इन सभी विषयों का प्रतिपादन श्रीमद् महोपाध्याय ने किस तरह किया है ? यह उत्कण्डा जिज्ञासा जरूर उत्पन्न होगी। यह उत्कण्ठा भर जिज्ञासा ?" निरुत्साह न बने तदर्थ गुरुकृपा से क्षयोपशमानुसार जयलता (संस्कृत टीका) एवं रमणीया ( हिन्दी टीका) को मैंने बनाई हैं। इस ग्रन्थ के अभ्यास के लिये अभ्यासिओं को एक विवेचन की आवश्यकता पहले महसूस होती थी जिसकी पूर्ति करने का मैंने एक नम्र प्रयास किया है । आशा है संस्कृत-हिन्दी टीकाजय के माध्यम से अध्येतागण को उपाध्यायजी के प्रस्तुत ग्रन्थ के पदार्थ वाक्यार्थ- महावाक्यार्थ- पेदम्पर्यार्थ को समझने में सुगमता रहेगी। सभी विषयों के जिज्ञासु विषयानुक्रम से अधिक परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
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परमाराध्यपाद सिद्धांतमहोदधि वात्सल्यवारिधि सुविशालगच्छाधिपति स्वर्गस्थ भगवान् प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के अनगिनत दिल्याशिष से पूज्यपाद गच्छाधिपति वर्धमानतपोनिधि प्रगुरुवर्य आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी