Book Title: Syadvadarahasya Part 2 Author(s): Yashovijay Upadhyay, Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 9
________________ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ अनेकान्तवाद सब के लिये अवश्य नमस्करणीय है । सम्यगेकान्त वादों से अनुप्राणित अनेकान्तवाद की सही जानकारी वर्तमान में परदर्शनों के अभ्यास के बिना अधूरी समझी जाती है। एक पदार्थ की संपूर्ण इप्ति के लिए सब पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है और सब पदार्थों की परिपूर्ण जानकारी के लिये एक पदार्थ का सूक्ष्म बोध आवश्यक है। इस तरह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, स्थिरता एवं वृद्धि के लिये परदर्शन अध्ययन की आवश्यकता होने पर भी बिना विनव-विवेकपैराग्य के वर्कअभ्यास मुक्तिसाधना में दिन भी पैदा कर सकता है यह भयस्थान जरुर है । मगर इस भयस्थान , " को अवसर ही न मिले तदर्थ हमने पूर्व बताया वैसे भक्तिमार्ग एवं वैराग्यपोषक शास्त्रपरिशीलन का अमोघ सहारा लिया जा सकता है। मगर इस भवस्थान से परदर्शन अध्ययन को ही अलविदा करना तो गले में फोटा होने पर गले को ही काटना है । जैसे फोडे की चिकित्सा कर के गले को सुरक्षित रखना ही अक्लमन्द का कार्य है ठीक वैसे ही परदर्शनअध्यवनस्थलीय भवस्थान को दूर कर के मोक्षमार्गबीजतुल्य नैषयिक सम्यग्दर्शन के योगक्षेमार्थ सर्वदर्शनों का गुरुगम के सहारे मार्गानुसारी बुद्धि से अध्ययन किया जाय यही विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य है । -: द्वितीय खण्ड विषय : - मध्यमस्याद्वादरहस्य के प्रथम खण्ड में वीतरागस्तोत्र अष्टम प्रकाश की आय ४ कारिका की श्रीमद् महोपाध्यायजीकृत म. स्याद्वादरहस्याभिधान व्याख्या, उसकी जयलतानामक संस्कृतटीका एवं रमणीया हिन्दी विवेचन का समावेश किया गया है। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड में वी.स्तो भएम प्रकाश की ५६.७-८ कारिका की मदोपाध्यायकृत ज्यारूपा, उसकी संस्कृतटीका एवं हिन्दीवितरण उपलब्ध है। अवशिष्ट ग्रंथांश एवं व्याख्याएं तृतीय भाग में सभ्य होगी पंचम श्लोक की व्याख्या में महोपाध्यायजी ने 'जिनोक्त नित्यानित्यत्वभित्र वस्तुस्वभाव किसी प्रकार के दोष से कलकित नहीं है' इस खोकार्य की पुष्टि के हेतु (१) प्रारंभ में सप्तमी का विस्तार से प्रतिपादन किया। यहाँ व्यधिकरणंधर्मावचित्र प्रभाव को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्न अभाव से ही अन्यमासिद्ध बतानेवाले भवदेव आदि नव्य नैयायिकों के मत का नव्य न्याय की गुठली में उन्मूलन किया गया है। बाद में एवकार की शक्ति अयोगव्यवच्छेद में न मान कर अन्ययोगव्यवच्छेद में मानने वाले नवीन नैयायिकों के मत का निरसन कर के अयोग एवं व्यवच्छेद में एवपद की खण्डशः शक्ति का समर्थन किया गया त्वमेवं भेद 'स्वादववतव्यः' में अभेद या पुनरुक्ति दोष का समाधान श्रीमद्जी ने यह दिया कि द्वितीयभंग में वक्तव्यत्वाभाव का प्रतिपादन अभिमत है और चतुर्थ भंग में उससे भिम अवक्तव्यत्वनामक स्वतंत्र जात्यन्तरभूत धर्म का कथन अभिमत है (पृ.नं. २८१) । वह समाधान उपाध्यायजी की अलौकिक प्रतिमा का दर्शन कराता है। बाद में प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्र का हवाला देकर सलादेश एवं विकलादेशस्वरूप दी सप्तभङ्गी का निरूपण कर के सप्तभङ्गीवादस्थल पर पर्दा डालने के पूर्व 'सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेव अर्थ बोधयति' इस न्याय के तात्पर्यार्थ का नव्य पदावली मे निरूपण किया है (पृष्ठ २८९) । (५) तत्वादस्थल में नीलरूप स्पर्श का व्याप्य नहीं है' इस प्रबल तर्क से अन्धकार में यत्वबाधक रूपाभाव का निराकरण किया गया है। असरेणु के स्पर्श में अनुत्य का स्थापन, अर्थसमाजसिद्ध धर्म में कार्यतानवच्छेदकता का प्रतिपादन, तमोद्रव्यत्वसाधक पूर्वाचार्यमतमंडन, आलोकगत चाक्षुषकारणता का उल्लूचाक्षुषादि में व्यभिचार से निराकरण, उच्छृंखलमत-मीमांसा सामसेन्द्रियवादी तारिककदेशीयमतसमीक्षा, प्रभाकरमिश्रमत समालोचना, प्रकाशकरूपाभावात्मकतमोवादी प्रगल्भ के मत का समीक्षण, वर्धमानउपाध्यायमत अपाकरण, स्वतन्त्रमतप्रतिपादन में जन्यभावमात्र में ससमवायिकारणकत्वनियम का पराकरण एवं परिष्कार, अन्धकार में रत्नप्रभसूरिमतानुसार भावत्व साधन, तम में पृथ्वीत्वबाधन, व्यवहार के बल से अन्धकार में द्रव्यत्वसिद्धि पुनः वर्धमानमतनिरास एवं कन्दलीकारमतकर्तन कर के तमोद्रव्यत्वाद को तिलांजलि दी गई है। " अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर मध्याह्नकाल में राजमार्ग पर यकायक घट आदि को उलटा करने पर घट आदि के अंदर अन्धकारव्य की उत्पत्ति कैसे गुमकिन होगी ? क्योंकि तब वातावरण में अन्धकार के अवयव अनुपस्थित है और प्रीड आलोक होने के समय अन्य देश से भी तमोऽवयन का आगमन नामुमकिन १" यह वर्धमान उपाध्याय का स्पाबादी के प्रति आक्षेप है जिसकी समीक्षा करते हुए उपाध्यायजी ने अपने परिणम्य परिणामकभाव के सिद्धान्त को लक्ष्य में रख कर यह बताया कि - पनतर आवरण के सहकार से वहाँ आलोकद्रव्य ही अन्धकारात्मना परिणत होता है। नियतारम्भवादी नैयायिक के बतानुसार इसकी कथमपि सङ्गति नहीं हो सकती मगर उपर्युक्त रीति से अनियतारम्भवादी जैनों के मतानुसार ही यह सम्भव है । इस विषय का विस्तार से निरूपण स्थाद्वादकल्बलता, बादमाला आदि ग्रन्थों में १. जो एवं जाणइ सो सव्वं जाण । जो सव्वं जाणइ सो एगं जाई || आचारांगसूत्र P IXPage Navigation
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