Book Title: Syadvadarahasya Part 2 Author(s): Yashovijay Upadhyay, Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 8
________________ VIU मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ सिद्धान्तबिन्दु, खण्डनखण्डखाय, वेदान्तकल्पलतिका आदि ग्रन्थों का, योगदर्शन में पातंजलयोगसूत्रभाष्य पर तत्त्ववैशारदी टीका, जो वाचस्पतिमिश्रकृत है, उसका एवं मंडनमिश्रकृत विधिविवेक की वाचस्पतिमिश्रकृत न्यायकणिका टीका का अध्ययन हो || जाय तो वहा सौभाग्य एवं सद्भाग्य समझा जायेगा । पश्चात् जैन नव्यन्याय के अध्ययनार्थ नयरहस्य, नयोपदेश न्यायालोक, आत्मख्याति, वादमाला, प्रमेयमाला, न्यायखण्डखाय, स्थाद्वादकल्पलता, स्याद्वादरहस्य, अनेकान्तब्यवस्था आदि ग्रन्थों का, नव्यन्याय गर्भित आगमिक एवं योगग्रन्थों के अभ्यासार्थ उपदेशरहस्य, भाषारहस्य, धर्मपरीक्षा, अध्यात्ममतपरीक्षा, आध्यात्मिकमतपरीक्षा, देवधर्मपरीक्षा, गुरुतत्त्वविनिश्चय, ज्ञानबिन्द्र, ज्ञानार्णव, प्रतिमाशतक, षोडशकनव्यटीका, द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, योगविंशिकावृत्ति, द्रव्यगुणपर्यायरास, ऐन्द्रस्तुति चतुर्विशतिका आदि का अध्ययन करना उचित समझा जाता है। प्राचीन जैनन्याय के द्वादशार-नयचक्र, सम्मतितर्कटीका, स्याद्वादरत्नाकर, न्यायावतारवार्तिक, प्रमाणमीमांसा आदि आकर ग्रन्ध भी मननीय हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवचनसार, बृहद्रव्यास्तिकाय, त्यायविनिश्रय, सिद्धिविनिश्चय, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थ-राजवार्तिक, तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक, प्रमेयरत्नमाला आदि न्यापग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । एवं शेष आगमग्रन्थों का, योगग्रन्थों का, वैराग्यवर्धक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् अध्यात्मबिन्दु, अध्यात्मउपनिषद्, अध्यात्मसार, ज्ञानसार, पोगसार, योगशतक आदि निश्पनयप्रधान ग्रन्थों का अध्यपन भी प्रशमरसवाहिता के अनुभवार्य उपयोगी माने जाते हैं। यहाँ जो कुछ अध्ययनक्रम बताया गया है वह तो एक दिग्दर्शनमात्र है । इस पद्धति के अनुसार अन्य जितने भी ग्रन्थों का अध्ययन किया जाय उतना कम है, क्योंकि जैनशासन तो सम्यक शास्त्ररत्नों का महासागर है । उसका पार कौन पा सकता है ? यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि दार्शनिक ग्रन्थों का ज्ञान जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्व दार्शनिक अध्यपन के दौरान वैराग्यकल्पलता, उपमितिभवप्रपंचाकथा, समाइश्चकहा, संबंगरंगशाला, अध्यात्मकल्पद्रुम, शांतसुधारस, प्रशमरति आदि आत्मपरिणतिविद्धिकारक ग्रन्थरत्नों के अध्ययन का भी है। यदि केवल शुष्क तर्कग्रन्थों के अध्ययनार्थ उपर्युक्त वैराग्यपोषक ग्रन्थों की उपेक्षा की जाय तो जीव में से शिव बनने की साधना निश्चेतन एवं प्राणविहीन बनने की भी पूर्णतया संभावना है । अतः दोनों विभागों का अच्छा सन्तुलन गुरुगम से किया जाय यही उपासक का सम्यक् ज्ञानमार्ग है। गंगाजल की भांति न्यायविद्या-तर्कविद्या अपने आपमें पवित्र एवं निर्मल होते हुए भी अयोग्यस्थान को पाकर जहर भी बन सकती है । इस भयस्थान से मुक्त बनने के लिये भक्तियोग भी एक उत्तम-सुरक्षित-ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक उपाप है। दार्शनिक अभ्यासार्थ संयमयोगों की निर्दोष एवं आवश्यक चर्या कुरबान की जाय - यह भी कथमपि सङ्गत नहीं है । श्री सिद्धर्षिमणिवर ने उपमितिभवप्रपश्चा कथा में भवभ्रमणहेतुभूत कुविकल्प के दो प्रकार बताये हैं (१) आभिसंस्कारिक (२) सहज । मिथ्यागासश्रवण के संस्कार से उत्पन्न होनेवाले कुविकल्प आभिसंस्कारिक कहे जाते हैं, जो कभी गीतार्थ स्वपरसमयज्ञ भवभीरु सद्गुरु के सत्संग के प्रभाव से निवृत्त होते हैं तो कभी सम्यग् एकान्तअविनाभावी अनेकान्तबाद के अवण-मनन-चिन्तन-निदिध्यासन से भी । पौद्गलिकसुख की लालसा, दुःख से खीफ, कञ्चन-कीर्ति-कामिनी में परमार्थसुखबुद्धि ये सब कुविकल्प सहज कहे जाते हैं, जिनकी निवृत्ति अधिगम सम्यग्दर्शन के बिना नामुमकिन है । अधिगम सम्यकत्व का मतलब है अनेकांतगर्भित-सद्गुरुउपदेशजन्य नैश्वयिक सम्यक्त्व । नैश्रयिक सम्यग्दर्शनवाले प्रत्येक जीवों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। इसका मतलब यह हुआ कि निश्चय सम्यग्दर्शन और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा परस्पर समन्याप्त अविनाभावी हैं और परस्पर के उपहम्भक हैं । दृष्टिवादपद से द्वादशांगी के अन्तिम अङ्गसूत्र, जिसमें १४ पूर्व सामिल हैं, का भी ग्रहण हो सकता है और अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद-स्याद्वाद प्रमाण का भी । दृष्टिवाद अगसूत्र अन्तर्गत १४ पूर्व तो कालिकानुयोग-नयबाद-प्रमाणवाद इत्यादि की मीमांसा से भरसक हैं, जो नैवयिक सम्पग्दर्शन का मूल आधार है । अनेकान्तवाद के बिना केवल नैश्रयिक दर्शन ही नहीं बल्कि लौकिकव्यवहार भी कथमपि सङ्गत नहीं हो सकता । अतएव १. ये खल्वमी कुविकल्पाः प्राणिनो भवन्ति । तद्यथा - एके कुशास्त्रश्रवणवासनाजनिताः यदत्त - 'अण्डसमुद्भूतमेतत्रिभुवनं, महेश्वरनिर्मितं, ब्रह्मादिकृतं, प्रकृतिविकारात्मक, क्षणविनश्वर, विज्ञानमात्र, शून्यरूपं वा' इत्यादयः 1 ते हि आभिसंस्कारिका इत्युच्यन्ते । तथा अन्ये सुखमभिलपन्तो दुःखं द्विषन्तो द्रविणादिषु परमार्थबुद्धयध्यवसायिनः, अत एव तत्संरक्षणप्रवणचेतसोऽदृष्टतत्त्वमार्गस्यास्य जीवस्य प्रवर्तन्ते, पैरेव जीयोऽशनीयानि शकते, अचिन्तनीयानि चिन्तयति, अभाषितव्यानि भाषते, अनाचरणीयानि समाचरति । ने तु कुविकल्पाः सहजा इत्यभिधीयन्ते । तत्राभिसंस्कारिकाः प्रथमसुगुरुसम्पर्कप्रभावादेव कदाचिनिदर्तेरन् । एते पुनः सहजा यावदेष जीवो मिथ्यात्वोपप्लुतबुद्धिस्तावन कथविद् निवर्तन्ते । यदि परमधिगमजसम्पग्दर्शनमेव प्रादुर्भूनमेनानिवर्तयतीति । उपमितिभवप्रपञ्चायां पीठबन्धे दृश्यतां ७६ तमे पृष्ठे प्रती । २. जण विणा लोगस्मबि बबहारो सन्चहा न निब्बहइ । तस्स भुवणेकगुरुगो नमो अणेगंतवायरस ॥Page Navigation
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