Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 7
________________ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ VII पशोबिजयजी महाराज ने किया । श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, मलवादी आचार्य आदि प्राचीन पूर्वजों के ग्रन्थों का मनन-निदिध्यान कर के उनमें से सुधारस निकाल कर परिवेषण करने की अद्भुत क्षमता. महोपाध्याय श्रीमद्जी को वरी हुई थी । स्याद्वाद, सप्तभङ्गी, नय, निक्षेप आदि के हार्ट को एवं प्राचीन शास्त्र के समीचीन तात्पर्य को परिस्फुरित करती हुई नव्यन्यायगर्भित महोपाध्यायजी की कृतियों का आस्वाद लेने के लिए प्राज्ञ मुमुक्षु के लिए नव्यन्याय की पारिभाषिक पदावली का सही ज्ञान पाना जरूरी बन जाता है। ऐसे देखा जाय तो एकान्तवादावलम्बी परदर्शनवार्ता को स्वदर्शनप्रतिपादन में कुछ स्थान ही नहीं है फिर भी मार्गानुसारी बुद्धि की विशदता एवं सूक्ष्मता के लिए तथा नैवयिक सम्पग्दर्शन की स्पर्शना के लिये एकान्तवादी-परदर्शननिरसन भी आवश्यक है, जो जैनन्याय के प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थों में द्रष्टिगोचर होता है । भनेका तार के कगाथो में सन्स् एकान्तवादों का इतना समन्वय किया गया है कि उसका हार्द समझे बिना एकान्तवाद का खण्डन करने पर अनेकान्तवाद पर ही कुठारनहार हो जाय एवं तन्मूलक द्वादशांगी की भी भारी आशातना हो जाप । इसीसे पता चलता है कि नव्यन्याय का अध्ययन कितना आवश्यक है ? जब अनेकान्तवाद को केन्द्रित कर के सब दानों का अभ्यास किया जाय तब तो स्वदर्शन एवं परदर्शन का आग्रह ही छूट जाता है । मगर केवल श्रद्धा के स्तर पर इस परमोच्च स्थिति पर पहुँचना मुश्किल ही है किन्तु किसी भी हालत में इस मन:स्थिति के पाने के बाद भी उसे चिरस्थायी रखना तो बकरे की दाड़ी से दूध निकालना है । मोहनीयक्षयोपशमानुविद्ध सूक्ष्म प्रज्ञाशक्ति से ही उपर्युक्त शमत्व अवस्था प्राप्य है एवं स्थाप्य है । तो स्वतंत्र केवल बुद्धि वेश्या ही है मगर मार्गानुसारी क्षयोपशम से नियन्त्रित बन जाने पर स्याबाद राजराजेश्वर की वह मुशील महारानी बन सकती है । तदर्थ सम्यक एकान्तवादों की नींव पर स्थित स्यावाद का परिशीलन एवं तदर्थ परदर्शनों का यथावत् अवलोकन अनिवार्य बन जाता है । दार्शनिक अभ्यास द्रव्यानुयोग का एवं सर्वदर्शनअध्ययन का अपने क्षेत्र में महन्न होते हुए भी रत्नत्रयी के समाराधक मुमुक्षु के लिए संस्कृत-प्राकृन-काव्य आदि के निपुण अभ्यास के बाद जैन आचारविज्ञान के लिये दशवकालिक, ओपनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, आशरांगसूत्र, पंचसूत्र, पंचवस्तु, पत्राशक आदि शास्त्रों का अध्ययन एवं जैन पदार्थविज्ञान के लिये आवश्यकनियुक्ति, विवोषावश्यकभाण्य, लोकप्रकाश, प्रवचनसारोद्धार, प्रज्ञापना आदि शास्त्रों का परिचय नो सत्र से पहले ही जरूरी है । बाद में प्रशाशक्ति के अनुसार जैनन्याय के जैनतर्कभाषा स्यावादभाषा, स्याद्वादमञ्जरी, रत्नाकरावतारिका, थर्मसङ्ग्रहणीटीका आदि का अच्छी तरह वीक्षण करने के पश्चात् महोपाध्यायजी महाराज के रसप्रद साहित्य का मधुर आस्वाद पाने के लिये नव्यन्याय 1, तर्कसङ्ग्रह, मुक्तावली, दिनकरी, व्याप्तिपञ्चक, सिद्धान्तलक्षण, अवच्छेदकनिरुक्ति, व्युत्पत्तिवाद आदि ग्रन्थों का अध्ययन उचित समझा जा सकता है । साथ ही सायदर्शन की सांख्यतत्त्वकौमुदी, बौद्धदर्शन के न्यायविन्दु, वेदान्तदर्शन के वेदान्तपस्भिाषा, मीमांसादर्शन के मीमांसापरिभाषा या अर्थसङ्ग्रह, योगदर्शन के पातञ्जलयोगसूत्र की राजमार्तण्ड पा मणिप्रभा टीका आदि का अन्वीक्षण जरूरी है, क्योंकि उपाध्यायजी महाराज अवसरोचित पड्दर्शन के सिद्धांतों की समीक्षा करने के लिये लालायित रहते हैं । जहाँ तक हम समझते हैं, हम यह कह सकते हैं कि उपाध्यायजी महाराज के साहित्य का सानंद एवं सम्यक् लाभ उठाने के लिये उपर्युक्त क्रम से अभ्यास करना ठीक रहेगा । साथ साथ योगदृष्टिसमुचय, योगबिन्द, ललितविस्तरा आदि योगग्रन्थों का अभ्यास करना इट न जाये पह भी ध्यान में रखना जरूरी है। विद्यारसिक मुमुक्षु के लिये आनन्द की बात यह है कि बहुधा उपदर्शित षड्दर्शनों के प्राथमिक ग्रन्थ हिन्दी या गुजराती में सविवेचन उपलब्ध होते हैं । एवं उपाध्यायजी महाराज के भी नवीनन्यायगर्भित अनेक प्रकरणरल भी हिन्दी या गुजराती भाषा में सविवेचन उपलब्ध हैं । जो मुमुक्षु अधिक प्रज्ञाशाली हैं एवं उपाध्यापजी महाराज के अन्धों की प्रत्येक पंक्ति एवं पदों का समीचीन सूक्ष्म हाई पाने के लिए उत्साही हैं उनके लिये प्राचीनन्याय के न्यायकुसुमांजलि, आत्मतत्वविवेक, न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि आदि ग्रन्थों का एवं नवीनन्याय के सामान्यनिरुक्ति, व्यधिकरण जागदीशी, वादवारिधि, तत्त्वालोक, प्रामाण्यवादगादाधारी, तत्त्वचिन्तामणि की माधुरी पा दीधिति टीका आदि ग्रन्थों का, सांख्यदर्शन के गौडपादभाष्य, सांख्यसूत्रभाष्य आदि प्रकरणों का, यौद्रदर्शन के प्रमाणवार्तिक, तत्त्वसङ्ग्रह, माध्यमिककारिका आदि ग्रंथों का, मीमांसादर्शन के आकर ग्रन्थ श्लोकवार्तिक का, व्याकरणदर्शन के वाक्यपदीय (जो पांच भाग में साम्रतकाल में सटीक उपलब्ध है) ग्रंथ का, वैशेषिकदर्शन के न्यायलीलावती, प्रशस्तपादभाष्य आदि शास्त्रों का, वेदान्तदर्शन के चित्सुखी (अपग्नाम तत्त्वप्रदीपिका), अवैतसिद्धि, १, सीसमइविप्फारणमेनोऽयं कओ समुल्लाओ । इहरा कहामुह चेव त्थि एवं ससमर्थमि ।। सं.त. ३/२५ । २. आत्मीयः परकीयो दा का सिद्धान्तो विपक्षिताम ? ||| योगविन्द . १२५

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