Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 10
________________ X भी उपलब्ध है । न्यायकन्दलीकार श्रीधर का मत यह है कि आरोपित नील रूप ही अन्धकार है, न कि इत्यादि । इसका समीक्षण श्रीमद् न्यायविशारदजी इस तरह करते हैं कि निराश्रय रूप वैशेषिकसिद्धान्तानुसार भी नामुमकिन है। अतः प्रतीयमान नील रूप के आश्रपीभूत द्रव्य को ही अन्धकार कहना मुनासिव है । - " मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः १ पथम कारिका का आकर्षक तृतीय वादस्थल है ईश्वरवाद । क्षिति आदि में ईश्वर कर्तृत्वसाधक कार्यत्व हेतु अन्यत्र वह प्राप्य नहीं है (१) प्रयत्न भी विलक्षणसंयोग प्रयोजक है । मगर निश्वयतः स्वद्रव्य मिट्टी ही घटजनक साधक दीधितिकार की तो हम इस तरह न्यायाचार्य का विकल्पषट्रक से जो निरसन यहाँ उपलब्ध है, हमारी धारणा है का ही हेतु है (२) व्यवहार से दण्डादि घट के कारण नहीं किन्तु है (२) खण्डपटजनक ईश्वरीय कृति के आश्रयविधया महेश्वर के ने निकाली है कि तब घटसामान्य के प्रति कुलालत्वेन हेतुता का ही उच्छेद हो जायगा । स्थाद्वादकल्पलता में उपर्युक्त दीधितिकारमत की समालोचना स्वसिद्धान्तानुसार इस तरह प्राप्य है कि खण्डपस्थल में हम नवीन घट की उत्पत्ति नहीं मानते हैं। अतः खण्डपटजनकविधवा ईश्वरसिद्धि नामुमकिन है। इसी बात को श्रीमद्जी ने भापारहत्य स्वोपज्ञविवरण में इस तरह बताई है कि घट में छिद्र पर्याय उत्पन्न होता है, न कि नूतन छिपट (भा.र. पृ. ३३) । न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयन के वृतिआदिहेतुक अनेक अनुमानप्रयोगों का खण्डन आगे चल कर किया है। ईश्वरसाधक उदयनउपन्यस्त 'कार्यायोजनवृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात् सङ्ख्याविशेपाच साध्यो विश्वविदन्यधः ॥ ( न्या. कु. ५/१) इन वा हेतुओं की एवं दशहेतु के नवीन अर्थ की विस्तार से कडी समालोचना न्यायाचार्य ने स्याद्वादकल्पलता के तृतीय स्तवक में की है । अष्टसहस्रीविवरण आदि ग्रन्थों में भी यह बादस्थल उपलब्ध है । श्रीसिद्धसेनादि प्राचीन जैनाचार्यों की युक्तिओं का भी अवसरोचित उपयोग न्यायाचार्यजी ने किया है । . पञ्चम कारिका का चतुर्थ वादस्थल है सर्वसिद्धि मीमांसक आदि असर्वज्ञवादी के मत का यहाँ खण्डन करते हुए पपदार्थ का बहुत मार्मिक प्रतिपादन कर के इस वादस्थल को एवं प्रथम कारिका को दिगम्बर अनुयायी की युक्ति बता कर जलाञ्जलि दी है (पृ.४५८) | r कारिका सुगम होने के सबब उस पर श्रीमद्जी ने कुछ विवेचन विवरण मध्यम स्याद्वादरहस्य में नहीं किया है। मगर श्रीहरिभद्रजी ने स्वयं ही स्याद्वादकल्पलता एवं नवरहस्य आदि ग्रंथों में इस कारिका की व्याख्या की है। अन्यत्र भी इस कारिका का अर्थतः विवरण उपलब्ध है। इन सब विवरणों का संकलन मैंने जपलता में किया है। प्रत्येक दोपकारी होते हुए भी संमीलित होने पर गुड और गुण्ठ दोषकारक नहीं रहते हैं किन्तु बल-पुष्टि आदि के हेतु बन जाते हैं दोषापहारपरक इस दृशन्त के बल से इस कारिका में स्वाद्वाद की निर्दोषता का प्रतिपादन किया गया है (पृ. ४१२ 1 सप्तम कारिका का मध्यम स्याद्वादरहस्यविवरण अत्यंत महत्वपूर्ण है 'अयं विरुद्धं नेकाऽसप्रमाणप्रसिद्धितः ।" इस पूर्वार्द्ध का अन्दय किस तरह लगाया जा सकता है ? इसका जो नस्यपदावलीगर्भित सूक्ष्म विवेचन महोपाध्यायजी ने किया है उसमें उनके व्याकरण, तत्त्वचिन्तामणिशब्दखण्ड नञ्वाद आदि शास्त्रों का गहरा ज्ञान प्रतिबिंबित हो रहा है । गदाधरकृत व्युत्पत्तिवाद के अभ्यासी के लिये यह विषय इतना जटिल नहीं बनेगा, जितना केवल तर्कसङ्ग्रह - मुक्तावली के अध्येताओं को होगा यह हमारी राय है । बाद में एकत्र सत्व और असत्व, एकल्व अनेकत्व आदि विरुद्ध प्रतीयमान धर्मयुगल किस तरह समाविष्ट होते हैं ? इसका नयवाद से निरूपण किया गया है । सत्त्व की व्याख्या करते करते श्रीमद् उपाध्यायजी ने न्यायसम्मत जाति की आलोचना कर के उतासामान्य और निर्मवसामान्य की निर्दोषता का प्रतिपादन किया गया है। ऐसे देखा जाए तो उतासामान्य एवं तिर्यकृसामान्य का सविस्तर समर्थन स्पाद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में भी उपलम्भ है मगर उस पर जो आक्षेप किया जा सकता है, उसे बता कर नव्यन्याय की परिभाषा के आलंबन से उसको दूर करने की श्रीमद्जी की जो शैली है, उसमें उनकी अभिनयउन्मेषशाली प्रतिमा का दर्शन होता है । 'समकालीन मित्रद्रव्यों का अनुगत धर्म जैनन्याय की परिभाषा के अनुसार तिक्सामान्यपद से प्रतिपाय है और पूर्वापरकालीन विभिन्नपरिणामशाली द्रव्य ही तासामान्य है'- यह प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार सूत्र में बताया गया है । मगर इसको यथावत् मान्यता दी जाय तत्र तो चिरस्थायी गुण एवं पर्याय में ऊतासामान्यपद की और तिर्यक्सामान्यपद की प्रवृत्ति नामुमकिन बन जायेगी, क्योंकि सूत्र में द्रव्यपदार्थ को केन्द्रस्थान में रख कर ही तासामान्य और निकृसामान्य का स्वरूप बताया गया है इस समस्या को हल करते हुए रहस्यकार ने यह सूत्ररहस्य बताया कि द्रव्यपद धर्मिपरक है । इसका मतलब यह है कि पुनपरकालसाधारण धर्मा ही तासामान्य है भीरु एककालीन विभिन्न वर्गीओों का अनुगत अनतिप्रसक्त धर्म ही

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