Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 5
________________ मध्यमस्याद्वादरइस्पे खण्डः २ है। उन्होंने तो यहाँ तक साफ साफ प्रतिपादन किया है कि हेतुवादगम्य पदार्थों का हेतु तर्क से एवं आगमचादरम्य पदार्थों का आगम से प्ररूपण करनेवाला ही जैनसिद्धान्त का प्रज्ञापक है । हेतुवादगम्य पदार्थ का आगम से एवं आगमैकगम्य पदार्थ का तर्क और पुक्ति से प्रतिपादन करने वाला सचमुच सर्वज्ञप्रणीत सिद्धान्त का विराधक है मंजक है । 1 । इतना ही नहीं वह ज्ञानगर्भित वैराग्य से भी शून्य है यह महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजा के उद्गार हैं। सम्यक् मीमांसा के बिना चाहे अनेक शास्त्रों को पते जनसम्मत बन जाये अनेक शिष्यों के परिवार से समृद्ध बन जाये जो भी यदि वह स्वसिद्धांत के विषयविभाग से अज्ञात है, वह चाहे कितना ही चारित्र के मूल गुण एवं उत्तर गुण में उद्यम करे फिर भी चरण-करण के तास्विक फल को वह जान नहीं सकता, अनुभव की तो बात ही कहाँ ? यह पूर्वधर श्रीमत् सिजसेनदिवाकर सूरिवर का वक्तव्य 'द्रस्यानुयोग का कितना मूल्यांकन करना चाहिये ?' इस दिशा में विचार करने के लिये प्राज्ञ मुमुक्षु के लिये पर्याप्त है उन्होंने तो यहीं तक कह दिया है कि- 'केवल शासन की भक्ति से सिद्धांत का सम्प ज्ञाता नहीं बना जा सकता एवं कुछ इधर से, कुछ उधर से ज्ञान पानेवाला वास्तव में स्पाद्वादगति सिद्धान्त की प्ररूपणा करने में असमर्थ एवं अनधिकारी है' । ' शास्त्रपरिकर्मित प्रज्ञा के बिना केवल आशयशुद्धि का कुछ भी महत्त्व नहीं है. यह सुरिपुरंदर हरिभद्रसूरि महाराजा का टंकोत्कीर्ण वचन है "अतएव सूत्रअभ्यास के बाद नय निक्षेप प्रमाण से अर्थ का अभ्यास करना यानी द्रव्यानुयोग का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है । जो आचार्य होते हुए भी तात्विक शास्त्रार्थ से अज्ञान है वह जिनेश्वरदेव की महाभाज्ञा की विटंबना करता है। उपर्युक्त पूर्वधर महर्षि के वचनों का उल्लेख करने के पीछे हमारा आशय सिर्फ इतना ही है कि मोक्षमार्ग की नीव जो नैअधिक सम्प दर्शन है, उसकी प्राप्ति के लिए स्वपरदशन के सिद्धान्त का सूक्ष्म प्रज्ञा से तलस्पर्शी अभ्यास जीवननिर्वाहक अन-पानहवा प्रकाश आदि से भी ज्यादा मूल्यवान् है । कहने दो कि वह अमूल्य ही है । इस वक्तव्य के विधेयात्मक हार्द को सुक्ष पाठकवर्ग अच्छी तरह समझ पायेंगे - यह मंगलकामना । नव्यन्यायअध्ययन की आवश्यकता , जिनशासनस्वरूप विशाल नभस्थल में द्रव्यानुयोगमर्म के प्रकाशक पूर्वधर श्रीसिद्धसेनदिवाकर सूरीश्वर मल्लवादी आचार्य, वाताल शांतिसूरिजी कलिकालसर्वज्ञ श्रीहरिभद्रसूरि हेमचन्द्रसूरिजी श्रीवादिदेवसूरिवर, भीरत्नप्रभाचार्य आदि अनेक सूरजचाँद सितारे उदित हो चुके उपर्युक्त महर्षियों की प्रतिपादनशैली प्राचीन न्याय की परिभाषा से प्लावित है। किसी विषय के बारे में अनेक संभावित विकल्पों की जाल बिछा कर वस्तु के सत्स्वरूप का मंडन करना एवं असतूस्वरूप का खण्डन करना यह प्राचीन न्याय की शैली है। न्यायशब्द का प्रयोग प्राचीनन्याय, जैनम्याय, वीजन्याय तथा नव्यन्याय के स्वरूप में बहुधा भारतीय दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्ध है। न्यायशब्द का अर्थ है तर्क अथवा युक्ति 'न्याय' शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति यह है कि 'भीयतेऽनेन वस्तुस्वरूपं इति न्याय' अर्थात् जिसके आधार पर किसी निर्णय तक पहुँचा जाए वह न्याय है। भाष्यकार अत्स्यायन ने 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:' (न्यायसूत्र वा.भा. १-१-१) ऐसा कह कर 'प्रमाणों के आधार पर अर्थ की परीक्षा का नाम न्याय है' ऐसी निजी परिभाषा बनाई है । परन्तु कालान्तर में । न्यापशब्द मुख्यतः गौतमदर्शन ( अक्षपादमत) के लिये रूड हो गया । के लिये व्यायशब्द का प्रयोग कर के वात्स्यायन ने उसे 'परमो न्याय: से दार्शनिक प्रमेयों की स्थापना करनेवाले गीतमीय दर्शन के रूप में आवश्यक है कि (१) इन्द्रभूति गौतम गणधर (२) गौतम बुद्ध एवं ठीक उसी तरह भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं जैसे शब्दवाच्य लवण, पख और अन । महर्षि गौतम के द्वारा प्रतिपादित पञ्च अवयवों संज्ञा प्रदान की और पथापन तथा उस प्रचालि स्थापित किया । यहाँ इस बात पर ध्यान देना (३) न्यायदर्शनप्रस्थापक गौतम महर्षि ये तीनों गीतम महर्षि के कई शताब्दियों के पश्चात् प्राचीन न्यायदर्शन की शैली ने नया परिमाण एवं नया परिवेष धारण . - ▾ १. जो वाक्यम्मि सो आगमे च आगमिभो । भो ससमयपण्णव सिद्धंतविराहओ अभो ॥ सं. न. ३/४५ २. आज्ञयाऽऽगमिकार्थानां यौक्तिकानां च युक्तितः । न स्थाने योजकत्वं चेत् १ न तदा ज्ञानगर्भता । अध्यात्मसार ६ ३८ । २. ज ज ओ सम्मओ व सियागणसंपरिवु अविणिच्छिओर सम, तह तह सितपरिणी । सम्भतितर्क ३-६६ । ४. चरणकरणप्पाणा ससमयपरसमयमुकवावारा, चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं पण याति ॥ संत ३-६७ । ५. शासणभनिमेतरण सिद्धतजाणओ होहण विजानपि शिषमा पष्णवणाणिच्छिओ नाम ॥ सं.स. ३-६२ ॥ , ६. जिणाणार कुणंताणं नूणं नित्राणकारणं । सुंदर पि सबुद्धिए सवं भवनिबंधणं ॥ ७. तम्हा अडिगवसुलेण अत्यसंपादणम्नि जगणं आवरीय धीरहत्था देवि महाणं पितन्ति ॥ संत ३६५

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