Book Title: Syadvadarahasya Part 2 Author(s): Yashovijay Upadhyay, Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 4
________________ V प्रास्ताविकम ॐ ह्रीं श्री शङ्खेश्वरपार्श्वनाथाय नमः मियाँजी जंगल में बिल्ली को छोड़ कर तीन दिन के बाद वापस घर लौटे तब बीबी चिल्ला उठी । 'हजरत इतने दिन कहाँ गये थे ?" 'बेगम साहेबा ! जंगल में मिट्टी को छोडने के बाद घर का रास्ता भूल गया था. ' 'तो फिर यहाँ वापस कैसे लौटे ?" 'अजी, उसी निशी के पीछे पीछे पर आ गया " इस प्रस में एकान्तवादी मानस का प्रतिबिंब निहित है । अनेकान्तवाद को कुतर्क एवं कुयुक्तियों से एकान्तवाद की सीमा के बाहर निकालने के बाद एकान्तपादी परदर्शनी वापस अपने एकान्तवाद के क्षेत्र में प्रवेश पाने की क्षमता को खो देते हैं। अपने एकान्तवाद के सिद्धान्त की स्थापना करने के लिये एवं उसकी त्रुटियाँ दूर करने के लिये स्वाद्वाद का ही आश्रय लेना आवश्यक बन जाता है। सापेक्षवाद से वहिर्भूत निरपेक्ष एकान्तवाद की प्रतिष्ठा कभी नहीं की जा सकती। अनेकान्तवाद का जन्म मुमकिन है एकान्तवादी परदर्शनी के सिद्धान्त किस तरह अनेकान्तवाद से संमीलित हैं इस विषय का सतर्क सम्यक् प्रतिपादन कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने वीतरागस्तोत्र के अहम प्रकाश में किया है। इसी अहम प्रकाश में अन्तर्निहित रहस्य के योतनार्थ एवं उसमें अन्तर्गत शान्तरस का आस्वाद करने के लिये महामहोपाध्याय श्रीमद् पशोविजयजी महाराज ने स्वाद्वादरहस्य प्रकरण बनाया। नव्य न्याय की शैली में अष्टम प्रकाशस्वरूप बाग को नवपल्लवित करने में न्यायविशारदजी ने कुछ कसर नहीं रखी है इस बात का भली भाँति परिचय श्रीमद्जी की कृति पर गौर से निगाह करने पर सुझ पाठक महाशयों को अनापास ही मिल जाता है । अष्टम प्रकाश को नव्य न्याय की परिभाषा से परिप्लावित करने के लिये न्यायाचार्यजी के उलास और उमंग में इतनी उभार आई कि जिसके फलस्वरूप इसी अष्टम प्रकाश पर जपन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट परिमाणनाले स्वाद्वादरहस्य नाम के तीन प्रकरणरत्न का अनुपम उपहार जिनशासन को मिला हमारा यह वहा सौभाग्य एवं सद्भाग्य है । मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ जीव में से शिव बनने की साधना करनेवाले साधकों को परास्त करने के लिये मोहमल सदा सज्ज रहता आया है । अतएव मुमुक्ष के लिये मोहमहामल के स्वरूप की समीचीन जानकारी एवं उसको हटाने की क्षमता को प्राप्त करना अनिवार्य बन जाता है । ज्ञानयोग से उपासक मोहमल के सही स्वरूप को पहचान सकते हैं एवं भक्तियोग से भक्त मोह का उन्मूलन करने का सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। न तो हम मोह की भावाजाल से अपरिचित होते हुए, शक्ति होने पर भी उसे हटा सकते हैं और न तो मोह की इन्द्रजाल को ठीक तरह पहचानते हुए भी सम्यक् आत्मशक्ति के प्रयोग के बिना, उसका उच्छेद कर सकते हैं। अतः ज्ञानयोग एवं भक्तियोग की नितांत आवश्यकता है। जि एवं शक्ति के आप उग्रमस्थानस्वरूप अरिहंत परमात्मा एवं शुद्धमहाव्रतधारी गुरुवर्ग तथा साधना में सहायक साधर्मिक की भक्ति से मोह का विच्छेद करने की ताकत पानेवाले आराधकों के लिये भी मोहोन्मूलन के लिये मोहराजा की सम्यक् समझ जरूरी बन जाती है। - द्रव्यानुयोग का महत्त्व आज हम यहाँ ज्ञानयोग के बारे में कुछ विमर्श करते हैं। पोडशक आदि ग्रन्थ में ज्ञानयोग के तीन भेद बताये हैं (१) श्रुतज्ञान (२) चिन्ताज्ञान (३) भावनाज्ञान । श्रुतज्ञान के चार विभाग हैं (१) द्रव्यानुयोग ( २ ) गणितानुयोग (३) चरणकरणानुयोग (v) धर्मकथानुयोग सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शुद्ध-वृद्धि-स्थिरता के लिए द्रव्यानुयोग का गहरा अभ्यास करना आवश्यक है। यदि षड्जीवनिकाय की अवधारणापूर्वक श्रद्धा रखते हुए भी द्रयानुषांग से कोई अज्ञात है तो वह द्रव्य सम्पदृष्टि कहा जाता है, भाव सम्पग्दर्शन का वह भाजन नहीं बन सकता इस बात की घोषणा करनेवाले 'सम्मतितर्ककार श्रीमद् सिद्धसेनदिवाकर सूरिवर ने इम्यानुयोग की गंभीरता और आवश्यकता की और अंगुलिनिर्देश किया १. नियमेण तो छकाए भाषओ न सess हंदि अपजवे विसरणा होइ अविभत्ता । सं.व. २/१८ -Page Navigation
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