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२० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ अकिंचन्नायतन एवं नैवसंज्ञानासंज्ञायतन से पार कराकर 'भवान' तक पहँचाता है जो निर्वाण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। जैनों ने ध्यान को चित्त-एकाग्रता के रूप में विवेचित करते हुए इसे निर्जरा एवं संवर का कारण बताया है। जो अंततः मोक्ष प्राप्ति का कारण बनता है।४१
तप और ध्यानाभ्यास में मूलत: भेद नहीं माना गया है। चिंतकों ने ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, निरोध, स्वान्तनिग्रह, अंत:संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, सवीर्य-ध्यान जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।४२ वस्तुत: तप अथवा ध्यान का एकमात्र प्रयोजन कुत्सित विचारों अथवा बुरे संस्कारों को क्षीण करना एवं आत्मानुभूति को प्राप्त करना माना गया है। ध्यान अथवा तप की पूर्णता हेत् तीन बातें अपेक्षित हैं - १. ध्याता, २. ध्येय और ३. ध्याना३ ध्याता अर्थात् ध्यान करनेवाला, ध्येय अर्थात् आलम्बन तथा ध्यान अर्थात् एकाग्रचिन्तन। इन तीनों की एकात्मकता ही ध्यान अथवा तप है। ध्यान, तप एवं आत्मा के बीच समन्वय स्थापित करते हुए यह कहा गया है।४ - आत्मा, अपनी आत्मा के लिए अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के हेतु से, अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है।
आत्मचिंतन रूप इस ध्यान से केवल आत्मतत्त्व का ही अनुभव होता है।४५ इस अवस्था में सभी प्रकार के संस्कारों का नाश हो जाता है। व्यक्ति समस्त रागद्वेषों से ऊपर उठकर चित्त-स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है। वैदिक मत में इसे विवेकख्याति का उदय, बौद्धमत में अर्हत् अथवा प्रज्ञा पारमिता का उदय एवं जैन परम्परा में 'अयोग' नामक स्थिति का प्रकट होना माना गया है। ये सभी अवस्थाएँ परमनिर्वाण की ही अवस्थायें हैं।
'तप' के सिद्धांत एवं प्रयोग द्वारा मानवीय समस्याओं का समाधान स्पष्ट है। तप का उद्देश्य कायक्लेश अथवा देह-दमन मात्र नहीं है, बल्कि इंद्रिय-वृत्तियों का संयम तथा मन की शुद्धि करना है जिसकी सहायता से आत्म-विकास के चरम ध्येय को प्राप्त किया जा सके। संदर्भ: १. भगवद्गीता, १७/१४-१६; १७-१९.
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्। वही १७/१७; मूढ़ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। वहीं १७/१९.
नारायणोपनिषद्, १०1८. ४. इंडियन फिलास्फी, I, पृ० ४३६.