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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ अप्रैल-सितम्बर २००७
तंत्र दर्शन में ज्ञान का स्वरूप
डॉ० जयशंकर सिंह
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ज्ञान के सन्दर्भ में तंत्र दर्शन का प्रमुख अवदान यह है कि ज्ञान को वह अप्रयत्नशील तथा स्वाभाविक रूप से क्रियाशील मानता है। अद्वैत वेदान्त दर्शन इस मत के ठीक विपरीत है। वह ज्ञान को निष्क्रिय मानता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार ऐसी क्रियायें हो सकती हैं, जो ज्ञान की तरफ हमें उन्मुख करें लेकिन ज्ञानावस्था में हमलोग निष्क्रिय रहते हैं। वस्तु का ज्ञान उसके स्वरूप से ही होता है। हमारा उसमें कोई अवदान नही होता है। उदाहरण के लिए हम फल को ले सकते हैं। फल का स्वाद हम बनाते नहीं है वरन् उसके स्वरूपानुसार ग्रहण करते हैं। उसके स्वाद का अनुभव करते समय हम बिल्कुल निष्क्रिय होते हैं। ज्ञान वस्तु पर निर्भर रहता है, लेकिन क्रिया नहीं। क्रिया के क्षेत्र में हमलोग बिल्कुल चयन के लिए स्वतंत्र रहते हैं। क्रिया पुरुष-तंत्र होती है जबकि ज्ञान वस्तु-तंत्र होता है। तांत्रिक दार्शनिक कहते हैं कि ज्ञाता ज्ञान के क्षणों में कोई प्रयास नहीं करता (जैसा कि फल के मिठास के सम्बन्ध में) किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ज्ञान होते समय हम निष्क्रिय रहते हैं। उस अवस्था में भी हम क्रियाशील रहते हैं, लेकिन यह क्रिया अनायास-क्रिया अथवा स्पन्द-क्रिया (Spontaneous Activity) होती है। स्पन्द वस्तुत: स्वतंत्र एवं स्वत: स्फूर्त क्रिया (Frec and Spontaneous Activity) है। अच्छे कवि या कलाकार की स्वाभाविक कला-प्रकाशन भी स्पन्द-क्रिया का ही उदाहरण है। शिव में जो शक्ति (क्रिया) है वह भी स्पन्दरूपा है, स्पन्द की एक खूबी है। वह कमी या अपूर्णता का द्योतक नहीं है। कर्म अपूर्णता का द्योतक है, स्पन्द नहीं है।
तंत्र दर्शन (काश्मीर शैव दर्शन) आत्मा और ज्ञान दोनों को अभिन्न मानता है। अद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार भी ज्ञान आत्मा का स्वरूप ही है। जिस प्रकार प्रकाश और प्रकाशक अलग-अलग वस्तु नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान और आत्मा अलग-अलग वस्तु नहीं है। ज्ञान आत्मा अथवा चेतना का गुण नहीं, अपितु स्वरूप है। अर्थात् चेतनता या ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक धर्म है।
____ तंत्र दर्शन के अनुसार ज्ञान निष्क्रिय प्रतीत होता है लेकिन निष्क्रिय नहीं है। यह ऐसी अवस्था होती है जहाँ पर ज्ञाता इच्छापूर्वक क्रिया नहीं करता है, बल्कि जहाँ * दर्शन एवं धर्म विभाग, का.हि. वि. वि०, वाराणसी