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तंत्र दर्शन में ज्ञान का स्वरूप : ७७
ज्ञान का अर्थ वस्तु का ग्रहण करना है वहाँ पर ज्ञाता की क्रिया अवश्य होती है। लेकिन यह क्रिया प्रयत्नहीन तथा स्वाभाविक होती है। ज्ञान को निष्क्रिय मानने वाले लोग दृष्टान्त देते हैं कि जिस प्रकार चन्द्रमा का स्वरूप तालाब में प्रतिबिम्बित होता है और प्रतिबिम्ब के समय वस्तु का स्वरूप मन या चेतना में प्रतिबिम्बित होता है तथा प्रतिबिम्बन के समय जैसे तालाब निष्क्रिय रहता है वह खुद प्रतिबिम्ब को पकड़ कर नहीं लाता है। ठीक उसी प्रकार वस्तु के ज्ञान की अवस्था में चेतना निष्क्रिय रहती है। किन्तु तंत्र दर्शन के पक्ष से यह बात कही जायेगी कि उक्त दृष्टान्त ज्ञान पर पूरी तरह से लागू नही होता है। तालाब प्रतिबिम्ब का ज्ञान नही करता है। किन्तु चेतनारूपी तालाब तो प्रतिबिम्ब का ज्ञान करता है और ज्ञान की प्रक्रिया भौतिक प्रतिबिम्बन मात्र नहीं है। चेतना प्रतिबिम्ब को पकड़ेगी या समझेगी नहीं तो वह ज्ञान बनेगा ही नहीं। यह अलग बात है कि यह पकड़ना ऐच्छिक कर्म न होकर चेतना की स्वाभाविक क्रिया है। तंत्र दर्शन के पक्ष से एक दूसरा दृष्टान्त दिया जा सकता है जो अधिक उपयुक्त है। वह यह कि जब भोजन पेट में जाता है तो पाचन की क्रिया अपने आप चालू हो जाती है। पचने का अर्थ है कि शरीर उस पर क्रिया कर रहा है, किन्तु हमारी यह क्रिया ऐच्छिक नही है अपितु अपने आप होती है, इसलिए पाचन की अवस्था में ऐसा लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर रहे हैं। उसी प्रकार जब वस्तु चेतना के सामने आती है तो उसको पकड़ने या पचाने की क्रिया चेतना में अपने आप होने लगती है।
ज्ञान की प्रक्रिया में ज्ञान होने के बोध की व्याख्या ज्ञान को निष्क्रियता की अवस्था मानकर नहीं की जा सकती। ज्ञान को निष्क्रियता की अवस्था मानने पर ज्ञान की क्रिया यान्त्रिक, भौतिक क्रिया हो जाती है जो दर्पण में पड़ रहे प्रतिबिम्ब के समान कही जायेगी, जिसमें दर्पण को वस्तु के प्रतिबिम्ब का बोध नही रहता। ऐसी स्थिति में ज्ञान की प्रक्रिया को चेतन क्रिया नहीं कहा जा सकता, जिसमें वस्तु का बोध रहता है।
एक प्रश्न उठता है कि ज्ञान वस्तु को प्रकाशित करता है, किन्तु स्वयं ज्ञान किस प्रकार ज्ञात होता है? इसके उत्तर में तंत्र दर्शन यह कहता है कि ज्ञान विषय के रूप में ज्ञात नही हो सकता, क्योंकि ज्ञान सदैव ज्ञाता को होता है न कि ज्ञात को, अर्थात् ज्ञान ज्ञाता का भाग होता है। ज्ञान को जानना ज्ञाता को जानना है। ज्ञाता को ज्ञान का विषय नही बनाया जा सकता है, क्योंकि ज्ञाता सदैव ज्ञेय से पूर्व रहता है। ज्ञाता विषय को ज्ञान का विषय कहना वदतोव्याघात है। ज्ञान का विषय ज्ञान नहीं अपितु विषय को जानना ज्ञान है।
तांत्रिक दार्शनिक का कथन है कि ज्ञान कुर्सी या मेज के समान ज्ञेय नहीं है, अपितु ज्ञान स्वयं प्रकाश है। विषय को प्रकाशित करने में ज्ञान भी स्वयं प्रकाशित