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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में ज्ञान की क्रमागत अवस्थाओं
१. मिथ्यात्व गुणस्थान इस अवस्था में आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है। यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है। इसमें मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल गिरी हुई होती है, क्योंकि प्राणी यथार्थबोध के अभाव में बाह्य पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आत्मा ऐकान्तिक धारणाओं, विपरीत धारणाओं, वैनयिकता (रूढ़ परम्पराओं), संशय और अज्ञान से युक्त रहती है, ' जिसके कारण उसको यथार्थ दृष्टिकोण उसी प्रकार अरुचिकर लगता है जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को भोजन।' हम ऐकान्तिक दृष्टिकोण या पाक्षिक व्यामोह के कारण आत्मा के यथार्थ स्वरूप को देख नहीं पाते हैं। अतः जब व्यक्ति ऐकान्तिक दृष्टिकोण का त्याग कर देता है तो यथार्थ दृष्टिकोणवाला कहलाने लगता है। जैसा कि पं० सुखलाल जी संघवी ने कहा है कि प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के प्रति सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होतीं, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्या दृष्टि, विपरीत दृष्टि या असत्-दृष्टि कहलाती हैं, तथापि वे सत्-दृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गयी हैं। अतः कहा जा सकता है कि इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्यादर्शन है।
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२. सास्वादन गुणस्थान सास्वादन गुणस्थान को क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को मोह का प्रभाव कम होने पर जब कुछ क्षणों के लिए सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता की क्षणिक अनुभूति होती है, तब उसे सास्वादन सम्यक् दृष्टि के नाम से अभिहित किया जाता है। जिस प्रकार खाना खाने के बाद वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता का ग्रहण होता है तब उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिए उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही सास्वादन गुणस्थान कहलाता है। इस गुणस्थान में कोई भी आत्मा प्रथम गुणस्थान से होकर नहीं आती, बल्कि ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर जब प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तब इस द्वितीय गुणस्थान की अवस्था से गुजरती है। इसका काल अति अल्प होता है। जिस प्रकार फल को वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में जो समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है वही समयावधि सास्वादन गुणस्थान के नाम से जानी जाती है।