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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में ज्ञान की क्रमागत अवस्थाओं
है। है। अष्ट कर्मों में से चार घातीय कर्म तो क्षय कर चुके होते हैं लेकिन चार अघातीय कर्म - आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों के अस्तित्व के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती है। इसे सदेहमुक्ति या जीवन्मुक्ति भी कहते हैं । जैन परम्परा में इस अवस्था को अर्हत्, सर्वज्ञ, केवली आदि नामो से विभूषित किया गया है।
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तब
१४. अयोगकेवली गुणस्थान - सयोगकेवली गुणस्थान में स्थित साधक आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त तो कर लेता है, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहता है। सयोगकेवली जब अपने शरीर से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है, वह आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोगकेवली गुणस्थान है। इस अवस्था में कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार का पूर्णतः निरोध हो जाता है। यह चारित्र - विकास या अध्यात्म - विकास की चरमावस्था है। आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त में देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। इसे जैन दर्शन में मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण ब्रह्म स्थिति कहा गया है।"
अब हम 'योगवासिष्ठ' में प्रतिपादित ज्ञान की सात भूमिकाओं पर विचार करेंगे। लेकिन इस पर विचार करने से पहले इसी ग्रन्थ में प्रतिपादित अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख करना भी आवश्यक है। आत्मस्वरूप में अनादिकाल से अज्ञान का आरोप है। अज्ञान की सात भूमिकाएँ इस प्रकार हैं - १. बीज जाग्रत् २. जाग्रत् ३. महाजाग्रत् ४. जाग्रत् - स्वप्न और ६. सुषुप्ति ।
१. बीज जाग्रत् - सृष्टि के आदि में चिन्मय परमात्मा से जो प्रथम नामनिर्देश रहित एवं विशुद्ध व्यष्टि चेतन प्रकट होता है, वह भविष्य में होनेवाले जीवादि नामों से पुकारा जा सकता है और जिसमें जाग्रत् अवस्था का अनुभव बीजरूप से स्थित होता है, उसे बीजजाग्रत् कहते हैं।
२. जाग्रत् नवजात बीज जाग्रत् के पश्चात् यह ज्ञान कि 'यह मैं हूँ', 'यह मेरा है' जाग्रत् कहलाता है । इसमें पूर्वकाल की कोई स्मृति नहीं होती ।
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३. महाजाग्रत् - पूर्व जन्मों मे उदय हुआ और दृढ़ता को प्राप्त हुआ यह ज्ञान कि 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है', महाजाग्रत् कहलाता है। जैसे ब्राह्मण आदि जातियों में उत्पन्न हुए लोगों में से किसी-किसी व्यक्ति का जन्मान्तर के अभ्यास से अपने वर्णोंचित कर्मों में विशेष आग्रह और नैपुण्य देखा जाता है, सबमें ऐसी बात