________________
१०२ :
श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
के रूप में स्वीकार करते हैं। अविनाभाव के लिए त्रैकालिक अनिवार्यता अपेक्षित है। अनिवार्यता की त्रैकालिकता का बोध हुए बिना अविनाभाव का नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। हेतु साध्य के अभाव में निश्चित रूप से नहीं रहता है, अर्थात् हेतु एवं साध्य के बीच ऐसा अव्यभिचरित सम्बन्ध है कि जिससे हेतु साध्य का गमक होता है, उनके मध्य रहा हुआ अव्यभिचरित सम्बन्ध या अविनाभाव नियम ही अकलङ्क आदि के मत में व्याप्ति का स्वरूप माना जा सकता है। नियत साहचर्य सम्बन्ध या ऐकान्तिक सम्बन्ध के द्वारा भावात्मक रूप में व्याप्ति सम्बन्ध को प्रदर्शित किया जाता है तथा अव्यभिचरित सम्बन्ध या अविनाभाव के द्वारा व्याप्ति सम्बन्ध को निषेधात्मक रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। व्याप्ति में नियत साहचर्य सम्बन्ध के लिए दो वस्तुओं के बीच सम्बन्ध का अनौपाधिक होना आवश्यक है- 'अनौपाधिकसम्बन्धः व्याप्तिः।'
जिन वस्तुओं का साहचर्य नियत न हो, उनमें व्याप्ति नहीं हो सकती। जैसेमेघ और वर्षा कभी साथ-साथ दिखाई देते हैं और कभी अलग-अलग। जहाँ तक वर्षा का सवाल है, वह तो एकनिष्ठ रूप से मेघ से अटूट है किन्तु बादल हमेशा ही वर्षा नहीं करता, अत: उसका सम्बन्ध वर्षा से अनियत है।
व्याप्ति के पर्याय के रूप में अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है। भिन्नभिन्न विचारकों ने व्याप्ति के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग भी किया है, यथालिंगलिंगि-सम्बन्ध, गम्यगमकभाव, साध्यसाधनभाव, अविनाभावनियम, प्रसिद्धि (कणाद), प्रतिबन्ध (सांख्य-योग), साध्याविनाभाव (जयन्त) नान्तरीयक (शंकर), अन्यथानुपपत्ति, अन्यथानुपपनत्व (जैन) आदि। परन्तु इन शब्दों की अपेक्षा व्याप्ति शब्द ही अधिक प्रचलित है।
चार्वाक के अतिरिक्त प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों ने व्याप्ति को स्वीकार किया है। तथापि उनमें व्याप्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में तथा इसको प्रतिष्ठित करने के साधन के सम्बन्ध में मतभेद अवश्य हैं। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्षवादी है, अत: उसके अनुसार एक मात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमानादि से प्राप्त ज्ञान प्रामाणिक नहीं हैं। अतएव चार्वाकों के लिए व्याप्ति स्थापन अप्रासंगिक है। सांख्य दर्शन की मान्यता है कि साध्य के साथ साध्य-साधन दोनों का अथवा साधन मात्र का जो नियत व्यभिचारशून्य साहचर्य है उसी को व्याप्ति कहते हैं। 'योगसूत्र' में व्याप्ति का उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भाष्यकार व्यास ने सम्बन्ध के रूप में व्याप्ति की चर्चा की है। उनके मतानुसार 'जो अनुमेय के साथ समान जातीय पदार्थों में अनुवृत्त (युक्त) एवं भित्र जातीय पदार्थों से व्यावृत्त (पृथक् करने