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१२० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
संस्कृत - प्राकृत टीकाओं का परिमाण इतना बढता गया और विषयों की चर्चा इतनी गहनतर होती गयी कि बाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमों का शब्दार्थ बताने वाली संक्षिप्त टीकायें की जायें। फलस्वरूप अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में बालावबोधों की रचना प्रारम्भ हुई जिन्हें टब्बा कहा गया। १८वीं सदी धर्मसिंह मुनि का नाम बालावबोधों के रचनाकारों में विशेष उल्लेखनीय है। दिगम्बर आगम
श्वेताम्बर सम्मत उक्त आगमों को दिगम्बर आम्नाय नहीं मानता। वे अंगादि प्राचीन आगमों को लुप्त मानते हैं, किन्तु उनके आधार पर विशेषतया दृष्टिवाद के आधार पर दिगम्बर आचार्यों द्वारा ग्रथित कुछ ग्रंथों को आगमतुल्य मानते हैं। उनमें पुष्पदन्त भूतबलिकृत 'षट्खण्डागम', आचार्य गुणधरकृत 'कषायपाहुड' और 'महाबन्ध' प्रमुख हैं। इनका विषय जीव और कर्म तथा कर्म के कारण जीव की नाना अवस्थाएं हैं। दार्शनिक खण्डन- मण्डन मूल में नहीं, अपितु बाद में होने वाली उनकी बडीबडी टीकाओं - धवला, जयधवला आदि में विशेषतया पाया जाता है। दिगम्बर आम्नाय के आचार्य कुन्दकुन्द का नाम इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिनका समय दिगम्बर ईसा की प्रथम शती तथा श्वेताम्बर पांचवीं छठी शती मानते हैं। उनके ग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदाय में आगमतुल्य ही माने जाते हैं जिनमें प्रवचनसार, नियमसार, समयसार, अष्टपाहुड आदि प्रसिद्ध हैं। इन आगमतुल्य ग्रंथों को दिगम्बरों
१. प्रथमानुयोग (पुराण आदि), २. करणानुयोग (सूर्यप्रज्ञप्ति आदि), ३. द्रव्यानुयोग (प्रवचनसार, आप्तमीमांसा आदि), ४. चरणानुयोग (मूलाचार, त्रिवर्णाचार आदि) इन चार भागों में वर्गीकृत किया है।
तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकायें
आगमों में जैन प्रमेयों का वर्णन विप्रकीर्ण था अतएव जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान आदि नाना आकार के विषयों का संक्षेप मे निरूपण करनेवाले एक ग्रंथ की महती आवश्यकता थी जिसकी कमी पूरी की आचार्य वाचक उमास्वाति / उमास्वामि (३सरी - ४थी शती) ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना कर। आगमों की तथा तत्त्वार्थ की टीकाएँ यद्यपि आगमयुग की नहीं हैं किन्तु उनक सीधा सम्बन्ध मूल के साथ होने से उनका महत्त्व अधिक है। यह ग्रंथ दोनों सम्प्रदायो में समान रूप से मान्य है। जैन धर्म और दर्शन की मान्यताओं का इस ग्रन्थ में अच्छे ढंग से वर्णन हुआ है। आचार्य उमास्वाति ने स्वयं इस पर स्वोपज्ञ भाष्य लिखा था किन्तु वह पर्याप्त न था, क्योंकि समय की गति के साथ-साथ दार्शनिक चर्चाओं मे