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२३० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
है और स्त्रियों के इतिहास को प्रस्तुत किया है। इस विशालकाय ग्रंथ में जैन परम्परा की चारों शाखाएं- दिगम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय में दीक्षित साध्वीयों का न केवल जीवन परिचय अपितु उनके कर्तव्य का भी उल्लेख किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में आठ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय पूर्व पीठिका २१ उपविषयों में विभाजित कर लिखा गया है जिसमें श्रमण संस्कृति की प्राचीनता जैनधर्म के सन्दर्भ में, वैदिक धर्म में नारी संन्यास, बौद्धधर्म में भिक्षुणी संघ, ईसाई धर्म में संन्यस्त महिलाएं, इस्लाम धर्म का नारियों के प्रति दृष्टिकोण, सूफीमत में संन्यस्त स्त्रियां, विश्व धर्मों के साथ जैन श्रमणी संस्था की तुलना, दिगम्बर परम्परा में श्रमणी संस्था की उपेक्षा एवं उसके कारण, जैन श्रमणी संघ की आंतरिक व्यवस्था, जैन श्रमणी दीक्षा महोत्सव, जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन-स्रोत, जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी दर्शन आदि विषय समाहित हैं । द्वितीय अध्यायप्रागैतिहासिक काल को ७ उप-विषयों में विभाजित किया है। इसके अन्तर्गत, भगवान ऋषभदेव से भगवान पार्श्वनाथ के काल तक की श्रमणियों का इतिहास, आगम तथा आगमिक व्याख्या साहित्य में वर्णित श्रमणियां, जैन पुराण साहित्य तथा जैन कथा साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियों का उल्लेख किया गया है। तृतीय अध्याय- इसमें महावीर और महावीरोत्तर काल की श्रमणियों की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय में दिगम्बर परम्परा के अन्तर्गत अतीत से वर्तमान तक १२ उपविषयों में व्याख्यायित किया है। इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा भेद, दिगम्बर परम्परा का आदिकाल, दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व, यापनीय, भट्टारक परम्परा की आर्यिकाएँ, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर भारत की आर्यिकाएँ समकालीन आर्यिकाएँ एवं क्षुल्लिकाएँ आदि को विवेचित किया गया है। पंचम अध्यायश्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा (अतीत से वर्तमान) में ९ उप-विषयों के माध्यम से श्रमणियों को वर्गीकृत किया है। इसमें खतरगच्छ, तपागच्छ, समकालीन तपागच्छीय, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, आगमिक गच्छ, पार्श्वचन्द्र गच्छ की श्रमणियों का उल्लेख है। प्रशस्ति ग्रन्थों व हस्तलिखित प्रतियों में श्रमणियों का योगदान तथा जिनका पूर्ण परिचय प्राप्त न हो सका उन श्रमणियों के नामों की सूची दी गई है। षष्ठ अध्याय - स्थानकवासी परम्परा के अन्तर्गत धर्मवीर लोकाशाह और उनकी धर्मक्रांति, स्थानकवासी नामकरण लोकागच्छीय श्रमणियां, क्रियोधारक आचार्य श्री जीवराज जी, श्री लवजी ऋषि जी, श्री धर्मसिंह जी महाराज, श्री धर्मदास जी महाराज, श्री हरजी ऋषि जी की श्रमणी परम्परा का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही हस्तलिखित ग्रन्थों में स्थानकवासी जैन श्रमणियों का योगदान तथा शेष श्रमणियों की तालिका दी गई है। सप्तम अध्याय तेरापंथ परम्परा के अन्तर्गत १४ उप
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