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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
आचार्य सिद्धसेन की विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादों को नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया। उनका मानना है कि संसार में जितने दर्शन भेद हो सकते हैं, जितने भी वचन भेद हो सकते हैं, उतने ही नयवाद हैं और उन सभी के समागम से अनेकान्तवाद फलित है। सभी नयों का समावेश मात्र दो नयों- द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक में हो जाता है। जब मनुष्य द्रव्यार्थिक अर्थात् अभेद की दृष्टि करता है और भेद की ओर उपेक्षाशील हो जाता है तब उसे अभेद ही अभेद नजर आता है। किन्तु दूसरा यदि भेदगामी दृष्टि यानी पर्यायार्थिक नय के बल से प्रवृत्त होता है, तो उसे सर्वत्र भेद ही भेद दिखाई देता है। स्याद्वाद की दृष्टि में भेद दर्शन और अभेद दर्शन दोनों ठीक हैं। इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में इन दोनों विरुद्ध मतों का समन्वय है। दोनों का विरोध लुप्त हो गया है। अनेकान्तवाद इन दोनों के समन्वय में है न कि विरोध में। कार्यकारण में भेदाभेद को लेकर दार्शनिकों में मतभेद थे। इस सन्दर्भ में न्याय-वैशेषिक, सांख्य एवं अद्वैतवेदान्त के मतों की समीक्षा करते हुए सिद्धसेन ने बताया कि अभेदगामी दृष्टि से विचार करने पर कार्य-कारण में अभेद है, और भेदगामी दृष्टि से देखने पर भेद है, अतएव एकान्त को त्याग कर कार्यकारण में भेदाभेद मानना ही युक्तिसंगत है। इस युग में समस्त भारतीय दर्शन के सामने नागार्जुन का शून्यवाद, वसुबन्धु का विज्ञानवाद और वेदान्त का अद्वैतवाद ही चर्चा के विषय रहे। जैन परम्परा के दार्शनिक आचार्यों ने शून्यवाद, विज्ञानवाद, अद्वैतवाद एवं भाषावाद के समक्ष जैन परम्परा के अनेकान्तवाद या स्याद्वाद को प्रस्तुत किया जिसने प्रतिवादियों के प्रतिवाद का खण्डन कर जिनमत की प्रतिष्ठा की। इसी प्रकार नित्य-अनित्यवाद, हेतुवाद-अहेतुवाद, भाव-अभाववाद, सत्कार्यवाद
और असत्कार्यवाद आदि नाना विरुद्ध वादों का समन्वय सिद्धसेन ने अपने ग्रन्थों में किया है। आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में नय और अनेकान्त का गम्भीर, विशद् और मौलिक विवेचन तो किया ही साथ ही उन्होंने प्रमाण के स्वपरावभासक लक्षण में बाधविवर्जित विशेषण देकर उसे विशेष समृद्ध किया। आचार्य सिद्धसेन ने 'न्यायावतार' में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन भेद किये हैं। इन्होंने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों के स्वार्थ और परार्थ दो भेद किए हैं। अनुमान और हेतु का लक्षण करके दृष्टान्त, दूषण आदि परार्थानुमान के समस्त अंगों का निरूपण सिद्धसेन ने किया है।
सिद्धसेन के इस कार्य को समन्तभद्र (ईसा की छठी शताब्दी) ने मनोयोग से आगे बढाया। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने विरोधी वादों के युगल को लेकर सप्तभंगियों की योजना कैसे हो, इसका स्पष्टीकरण भाव-अभाव, नित्य-अनित्य, भेद-अभेद, हेतुवाद-अहेतुवाद, सामान्य-विशेष आदि तत्कालीन नाना वादों में