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जैन दार्शनिक चिन्तन का ऐतिहासिक विकास-क्रम : १२१
गम्भीरता और विस्तार बढ़ रहा था जिसका समावेश करना अनिवार्य समझा गया। परिणाम यह हुआ कि पूज्यपाद ने छठी शताब्दी में 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक एक स्वतंत्र टीका लिखी, जिसमें उन्होंने जैन पारिभाषिक शब्दों के लक्षण निश्चित किए और यत्र-तत्र दिङ्नाग आदि अन्य विद्वानों के मत का अल्पमात्रा में खण्डन भी किया। विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी में तो टीकाओं की होड लग गयी और अकलंक तथा विद्यानन्द ने क्रमश: 'राजवार्तिक' एवं 'श्लोकवार्तिक' की रचना की। सिद्धसेन और उनके बाद हरिभद्र ने अपने समय तक होने वाली चर्चाओं का समावेश अपनी बृहत्काय और लघुवृत्तियों में किया। ये पांचों कृतियां दार्शनिक हैं। दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' के ऊपर धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' लिखा और जिस प्रकार उसी को केन्द्र में रखकर सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन विकसित हुआ उसी प्रकार तत्त्वार्थ को केन्द्र में रखकर जैन दार्शनिक साहित्य का विकास हआ। बाद में मलयगिरि, चिरन्तनमुनि एवं वाचक यशोविजय ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर टीकायें लिखीं।
अत: सत्रहवीं शताब्दी तक के दार्शनिक साहित्य का अन्तर्भाव भी इसमें हुआ। दिगम्बर आचार्यों में भी श्रुतसागर, विधुसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, अभयनन्दी आदि ने संस्कृत टीकायें लिखीं । बीसवीं शती में भी पं० सुखलालजी ने तत्त्वार्थ पर सुन्दर विवेचन किया है। अनेकान्त-स्थापना युग
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में बौद्ध दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित नागार्जुन ने एक अभिनव चेतना जागृत की। उन्होंने दार्शनिक वाद-विवादों एवं तत्त्वचर्चा को एक नूतन आयाम दिया तथा दार्शनिक क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया। इस क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रभाव सिर्फ बौद्ध दर्शन पर ही नहीं अपितु सभी भारतीय दर्शनों पर पड़ा। एक तरह से दर्शनशास्त्र के तार्किक अंश (स्वपक्ष) का मण्डन और पर पक्ष के खण्डन का दौर प्रारंभ हो चुका था। जैन दर्शन भी इससे अछूता नहीं रहा। उस समय वाद-विवाद को तटस्थ रूप से देखनेवाले जैनाचार्य इससे अपने को बचा नहीं सके। फलत: जैन परम्परा ने सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र जैसे तार्किकों को उपस्थित किया।
जैन दर्शन के महान् आचार्यों ने श्रमण भगवान महावीर के समय से श्रुत साहित्य में नय आदि के रूप में अनेकान्तवाद के जो बीज बिखरे हए थे उन्हें सिद्धान्त रूप में स्थिर किया। इस मूल आधार को लक्ष्य में रखकर जैन दार्शनिक साहित्य में इस समय को 'अनेकान्त स्थापना युग' कहा गया। इस युग में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, मल्लवादी, सिंहगणि और पात्रकेशरी, ये पाँच जैन दार्शनिक हुए।