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१२६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
'सप्तभंगीतरंगिणी' नव्य शैली की अकेली अनूठी रचना है। अठारहवीं शती में यशस्वतसागर ने 'जैनसप्तपदार्थी' आदि ग्रन्थों की रचना की।
- इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दार्शनिक चिन्तन का विकास क्रमपूर्वक हुआ है। इस विकास में इसने एक लम्बी अवधि तय की है। साथ ही इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस विकास क्रम में जैन विद्वानों के साथ-साथ अजैन विद्वानों का भी स्मरणीय योगदान रहा है, क्योंकि दार्शनिक सिद्धान्त वादप्रतिवाद, आलोचना-प्रत्यालोचना और खण्डन-मण्डन से ही पुष्ट होते हैं। सन्दर्भ :
१. तत्त्वार्थसूत्र १.१ २ आवश्यकनियुक्ति १९२ ३. हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर भा० २, पृ. ४७४ ४. न्यायावतार,,सिद्धसेन दिवाकर- १.१ ५. आप्तमीमांसा- ८७ ६. न्यायावतार-सिद्धसेन दिवाकर, १.१ ७. मालवणिया, पं० दलसुख, जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन, जैन
संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी पृ. १९-२०.