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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ अप्रैल-सितम्बर २००७
प्रकाशित उपांग साहित्य
ओम प्रकाश सिंह
उपांग साहित्य
__ भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का विशिष्ट स्थान है। जैन साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया है- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। गणधरकृत आगम अंग अथवा अंगप्रविष्ट तथा स्थविरकृत आगम अंगबाह्य कहलाते हैं। उपांग अंगबाह्य आगम की कोटि में रखे गये हैं, परन्तु कालान्तर में जैन साहित्य के परिवर्तन एवं परिवर्धन की स्थिति में इन्हें अंगों से सम्बन्धित करने का प्रयास किया गया।
वर्तमान में हमें १२ उपांगों के उल्लेख मिलते हैं, जिनके नाम हैं - 'औपपातिक', ‘राजप्रश्नीय', 'जीवाजीवाभिगम', 'प्रज्ञापना', 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'चन्द्रप्रज्ञप्ति', 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति', ‘कल्पिका', 'कल्पावतंसिका', 'पुष्पिका', 'पुष्पचूलिका', 'वृष्णिदशा।' निरयावलिका में हमें पांच उपांगों का उल्लेख मिलता है। 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' के वृत्तिकार शान्तिचन्द्र ने सर्वप्रथम १२ उपांगों का उल्लेख किया है। जिसमें निरयावलिका के पांच तथा अन्य सात उपांगों के नाम मिलते हैं। मैंने अपने लेख में उपांगों की अब तक की प्रकाशित सूची जो मेरी जानकारी में है उसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। औपपातिकसूत्र
औपपातिक जैन आगमों का प्रथम उपांग है। इसमें कुल ४३ सूत्र हैं। इस ग्रंथ का आरम्भ चम्पानगरी के वर्णन से किया गया है। इसके प्रकाशित संस्करण निम्न हैं
१. प्रस्तावना के साथ E. Leumann Leipzig, 1883 २. अभयदेव वृत्तिसहित, आगमसंग्रह प्रकाशन, कलकत्ता १८८०.
आगमोदय समिति, बम्बई, १९१६. सागरानन्दसूरि, आगमोदय प्रकाशन समिति, बम्बई - १९५५. संस्कृत व्याख्या एवं हिन्दी-गुजराती अनुवाद, अनुवादक- मुनि घासीलाल
जी, जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट, १९५९. * पुस्तकालयाध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-२२१००५
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