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बौद्ध एवं जैन दर्शन में व्याप्ति-विमर्श : १११
के न होने पर साधन का न होना अन्यथानुपपत्ति है। यथा- वह्नि के होने पर ही धूम का होना और वह्नि के न होने पर धूम का न होना।५१ एक अन्य भेद में सहभावनियम एवं क्रमभावनियम का नाम आता है। माणिक्यनन्दी ने व्याप्ति के दो रूपों सहभावनियम एवं क्रमभावनियम का वर्णन किया है।५२ दो सहचारी पदार्थों एवं व्याप्य-व्यापक पदार्थों में सहभाव अविनाभाव होता है।५३ जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं। उनमें सहभावनियम अविनाभाव रहता है।५४ जैसे- रूप और रस दोनों सहचारी हैंरूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहते हैं। अत: दोनों सहचारी हैं। इसलिए उनमें सहभावनियम अविनाभाव है। इस अविनाभाव से स्वभाव, व्याप्य एवं सहचर हेतु साध्य के गमक होते हैं। पूर्वचर, उत्तरचर, कार्य एवं कारण हेतुओं में क्रमभाव अविनाभाव होता है।५५ जो पूर्वोत्तरचारी और कार्य-कारण होते हैं उनमें क्रमभावनियम अविनाभाव होता है। जैसे- कृतिका का उदय और शकट का उदय। कृतिका का उदय पूर्वचर और शकट का उदय एक मुहूर्त बाद होता है। दोनों में क्रमभावनियम अविनाभाव है। इसी से कृतिका के उदय से शकटोदय का अनुमान होता है। इन दो प्रकार के अविनाभाव से समस्त हेतु साध्य के गमक सिद्ध हो जाते हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अनुमान के आवश्यक अंग के रूप में बौद्ध एवं जैन दोनों ही दर्शनों में व्याप्ति को स्वीकार किया गया है। दोनों ही अविनाभाव नियम को व्याप्ति स्वीकार करते हैं। परन्तु व्याप्ति ग्रहणता में जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को आत्मसात कर यह बताने का प्रयास किया है कि जिससे जिसकी उत्पत्ति होती है उसमें उसका अव्यभिचार होता है और जिसमें जिसका तादात्म्य होता है उसमें भी उसका अव्यभिचार होता है। इसके विपरीत जैनाचार्यों ने इन दोनों सम्बन्धों से व्याप्ति होने को अस्वीकार किया है। उनका मानना है कि पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि ऐसे अनेक हेतु हैं जिनमें साध्य के साथ न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति, तथापि साध्य के साथ व्याप्ति होती है। वादिदेवसूरि ने 'स्याद्वादरत्नाकर' में तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को अपर्याप्त ही नहीं, अपितु उनके द्वारा व्याप्ति स्वीकार करने का खण्डन भी किया है। प्राकृतिक तथ्यों से सम्बन्ध व्याप्तियाँ भी भित्र-भिन्न रही हैं। जिस दर्शन का जो सिद्धान्त रहा उसने उसी के आधार पर व्याप्ति को परिभाषित करने का प्रयास किया। अविनाभाव के लिए जहाँ तक त्रैकालिक अव्यभिचार का प्रश्न है, वैज्ञानिक व्याप्तियों को खण्डित होते देख यह नहीं कहाँ जा सकता कि सारी व्याप्तियाँ सही ही हैं। हाँ! व्याप्तियां अपने देश-काल विशेष में ही सही हो सकती है, यह आवश्यक नहीं की वे त्रैकालिक सत्य हों।