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बौद्ध एवं जैन दर्शन में व्याप्ति-विमर्श : १०९
से भिन्न स्वरूप बतलाया है और कहा है कि अपनी विशिष्ट व्याप्ति के कारण व्याप्य ही गमक होता है तथा अपनी विशिष्ट व्याप्ति के कारण व्यापक ही गम्य होता है।" परन्तु अर्चट ने जिस व्यापकधर्मरूप व्याप्ति को गमकत्वनियामक कहा है उसे गङ्गेश व्याप्ति नहीं मानते हैं। गङ्गेश १ का मानना है कि वह व्यापकत्व मात्र है और तथाविध व्यापक का सामानाधिकरण्य ही व्याप्ति है- 'तेन समं तस्य सामानाधिकरण्यं व्याप्तिः।'
जैनाचार्य रत्नप्रभ ने गम्य-गमक रूप साध्य-साधन के अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहा है।४२ इन्हीं का समर्थन करते हुए धर्मभूषण ने साध्य और साधन में गम्य-गमक-भाव को साधक एवं व्यभिचार के गन्ध से रहित जो सम्बन्ध विशेष है, उसे व्याप्ति अर्थात् अविनाभाव कहा है।४३ सहभाव एवं क्रमभाव नियम को प्रशस्तपाद द्वारा दैशिक व्याप्ति एवं कालिक व्याप्ति के रूप में किये गये निरूपण को ही ध्यान में रखकर सम्भवत: रत्नप्रभ ने गम्य-गमक भाव को ही अविनाभाव कहा
और इसी में 'व्यभिचार शून्यता' शब्द जोड़कर धर्मभूषण ने अपने व्याप्ति लक्षण की विवेचना की।
जहाँ तक व्याप्ति की ग्राहकता का प्रश्न है तो जैन दर्शन में तर्क को एक मात्र व्याप्ति ग्राहक का साधन माना गया है। जैन परम्परा में तर्क के स्वरूप और विषय को स्थिर करने का श्रेय अकलङ्क को जाता है। अकलङ्क ने ही सर्वप्रथम तर्क को व्याप्ति ग्राहक रूप में समर्थित किया और उसका सबलता के साथ स्थापन किया। उन्होंने प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से होने वाले सम्भावनात्मक ज्ञान को तर्क कहा है। 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में तर्क का लक्षण इस प्रकार से व्यक्त किया गया है- 'साध्य
और साधन के सम्बन्ध विषयक अज्ञान को निरस्त करने का जो साधकतम उपाय है उसे ही तर्क कहा जाता है।'४५ माणिक्यनन्दी ने उपलम्भ और अनपलम्भ के निमित्त से जो व्याप्ति ज्ञान होता है उसे तर्क कहा है।४६ जैसे- 'अग्नि के होने पर ही धूम का होना' इस उपलम्भ तथा ‘अग्नि के अभाव में धूम का कदापि न होना' इस अनुपलम्भ का कारण व्याप्ति को सर्वोपसंहार रूप से जानना ही तर्क है। तात्पर्य यह है कि जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि भी होती है और जहाँ अग्नि नही होती वहाँ धूम भी नहीं होता। इस प्रकार के उपलम्भमूलक व्याप्ति सम्बन्ध को अर्थात् सर्वकालिक, सर्वदेशिक तथा सर्वव्यक्तिक अविनाभाव सम्बन्ध को सर्वोपसंहार रूप से ग्रहण करना ही तर्क है। प्रत्यक्ष से गृहीत साध्य एवं साधन ही नहीं, अपित् अनुमान और आगम के विषयभूत पदार्थों में भी अविनाभाव का निश्चय तर्क द्वारा होता है। वादिदेवसूरि ने 'प्रमाणनयतत्त्वालोक'४७ में तर्क-लक्षण में उपलम्भ और अनुपलम्भ से उत्पन्न होनेवाला तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्य त्रैकालिक साध्य-साधन विषयक सम्बन्ध