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बौद्ध एवं जैन दर्शन में व्याप्ति-विमर्श : १०७
यथा- श्वः सविताउदेता अद्यतनसवितुरूदयात्, शकटं उदेष्यति कृत्तिकोदयात्, उद्गाद्भरणिः कृत्तिकोदयात्, रससमानकालं रूपं जातं रसात, चन्द्रोदयो जातः समुद्रवृद्धेः इत्यादि हेतुओं में न तादात्म्य है और न कार्य कारणभाव।२९ बौद्ध नैयायिक पंचकारणी के द्वारा कार्यकारणभाव का निश्चय करते हैं और कार्य-कारणभाव के निश्चय से अविनाभाव का निश्चय होता है। परन्तु यहाँ अविनाभाव को कार्यकारणभाव और तादात्म्य दोनों में ही नियंत्रित कर उसके व्यापक स्वरूप एवं क्षेत्र को संकुचित बना दिया गया है।
___ व्याप्ति-भेद पर विचार करें तो भारतीय तर्कविद्या में कई प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। परन्तु बौद्धों ने व्याप्ति के सामान्य-विशेष रूप को स्वीकार किया है। जब दो सामान्य पदार्थों में व्याप्ति उपलब्ध हो, तो उसे सामान्य व्याप्ति तथा विशेष पदार्थों में व्याप्ति गृहीत होने पर उसे विशेष व्याप्ति कहा जाता है।३० बौद्धों के मतानुसार व्याप्ति सामान्य विषयों में ही हो सकती है, विशेष विषयों में नहीं।३१ किन्तु यह मत एकांगी होने से न्यायसंगत नहीं जान पड़ता है। नैयायिक एवं मीमांसक बौद्धों के इस अभ्युपगम को सारहीन बताते हुए विशेष पदार्थों में भी व्याप्ति ग्रहण सिद्ध किया है। कालान्तर में बौद्ध दर्शन में भी न्याय एवं मीमांसा सम्मत अन्वय व्यतिरेक व्याप्ति को स्वीकार किया गया हैं। धर्मकीर्ति एवं उनके टीकाकार धर्मोत्तर, अर्चट, कर्णकगोमि, मनोरथनन्दी ने भी अन्वय-व्यतिरेक व्याप्ति का उल्लेख किया है।३२ साध्य-साधन के भावात्मक रूप को अन्वय व्याप्ति और उसके अभावात्मक रूप को व्यतिरेक व्याप्ति कहा गया है।
जैन व्याप्ति-विमर्श- अन्य तार्किकों के समान ही जैनाचार्य भी अनुमान का मुख्य आधार व्याप्ति को मानते हैं। दो वस्तुओं में सर्वदा नियतरूप से सहचार सम्बन्ध स्वीकार किए बिना एक के ज्ञान से दूसरे का ज्ञान नहीं हो सकता। व्याप्ति का जो स्वरूप प्राचीन न्याय-वैशेषिक एवं बौद्धाचार्य निरूपित करते हैं वही स्वरूप जैन दर्शन में भी प्रतिपादित है। जैन दार्शनिकों ने व्याप्ति को अविनाभाव नियम एवं अन्यथानुपपत्ति के रूप में अभिव्यक्त किया है।
जैन दर्शन में व्याप्ति का प्रतिपादन माणिक्यनन्दी से पूर्व स्पष्ट रूप से नहीं प्राप्त होता है। सिद्धसेन, अकलङ्क, विद्यानन्द आदि दार्शनिकों के हेतु लक्षण का अध्ययन करने से विदित होता है कि वे साध्य एवं हेतु के अविनाभाव नियम को ही व्याप्ति मानते हैं। व्याप्ति ज्ञान को परिभाषित करते हुए माणिक्यनन्दी३३ कहते हैं कि 'इस वस्तु के रहने पर यह वस्तु रहती है और इसके नहीं रहने पर नहीं रहती है। अर्थात् साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथा साध्याभाव में हेतु का न होना