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१०६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
तादात्म्य का अर्थ है- दो वस्तुओं में उसके सार गुण की एकता । तादात्म्य की व्याख्या करते हुए धर्मोत्तर ने लिखा है कि वह साध्य अर्थ जिसका आत्म स्वभाव होता है, वह तदात्मा और उसके भाव को तादात्म्य कहा जाता है। २५. आशय यह है कि जो वस्तु किसी दूसरी वस्तु के आत्मस्वरूप होती है, वह उसके बिना कदापि नहीं रह सकती। इसलिए तादात्म्य सम्बन्ध को अविनाभाव का नियामक कहा जाता है। तादात्म्य सम्बन्ध उनमें होता है जो सहभावी होते हैं। जैसे- हेतु और साध्य । ये अस्तित्व की दृष्टि से अभिन्न होते हैं। जैसे - यह वृक्ष है क्योंकि यह अशोक है। इस वाक्य में वृक्ष साध्य है और अशोक हेतु। इसमें साध्य हेतु की सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं रखता इसलिए यह स्वभाव हेतु है । अशोकत्व और वृक्षत्व में नियत सहभाव है, इसलिए यह तादात्म्य मूलक अविनाभाव है।
व्याप्ति के तदुत्पत्ति सिद्धान्त की विवेचना करते हुए बौद्धाचार्यों ने कहा है कि साध्य अर्थ से जिस लिङ्ग की उत्पत्ति होती वह तदुत्पत्ति सम्बन्ध अर्थात् कार्यकारण सम्बन्ध अविनाभाव का नियामक है। जैसे- 'पर्वत अग्निमान है, धूम होने से।' यहाँ साधन धूम साध्य अग्नि का कार्य है और अग्नि कारण। कारण के अभाव में कार्य की सत्ता नहीं होती, इसीलिए कारण अग्नि के अभाव में, कार्य धूम के कहीं भी न पाए जाने से, इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध का नियामक कार्य-कारण भाव को माना जाता है । २६ इस कार्य-कारण सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए बौद्धाचार्य पंचकारिणी - विधि का प्रयोग करते हैं।
१. कार्य और कारण दोनों का अभाव २. कारण का भाव होना
३. कार्य का भी भाव होना
धूम की सत्ता का भी ज्ञान होना ।
४. कारण का अभाव होना
अग्नि की सत्ता का अभाव होने पर ।
५. कार्य का अभाव होना
धूम की सत्ता का भी अभाव हो जाना।
बौद्धाचार्य व्याप्ति स्थापन के लिए तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति सिद्धान्त के अतिरिक्त किसी अन्य को अविनाभाव का नियामक स्वीकार नहीं करते हैं । अर्चट ने भी कहा है कि तादात्म्य और तदुत्पत्ति के साथ अविनाभाव और अविनाभाव के साथ वे दोनों व्याप्त हैं। जिनमें न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति उनमें अविनाभाव भी नहीं होता है। २८ दरबारी लाल कोठिया का कहना है कि पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि कितने ही ऐसे हेतु हैं जिनमें न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति, फिर भी उनमें अविनाभाव रहता है तथा अविनाभाव रहने से उन्हें गमक स्वीकार किया गया है।
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और अग्नि दोनों का अभाव होना ।
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धूम
अग्नि की सत्ता का ज्ञान होना ।