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१०४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
बौद्ध व्याप्ति-विमर्श - बौद्ध व्याप्ति के लिए अविनाभाव शब्द का प्रयोग करते हैं। अविनाभाव का अर्थ है- अ+बिना+भाव अर्थात् साध्य के अभावीय स्थलों में हेतु की सत्ता का न होना। अविनाभाव के साथ-साथ स्वभाव-प्रतिबन्ध एवं अव्यभिचार नियम शब्दों का प्रयोग भी व्याप्ति के लिए हुआ है। साध्य के होने पर ही हेतु का सद्भाव होता है। अत: अविनाभाव व्यतिरेक व्याप्ति के साथ ही अन्वय व्याप्ति का भी बोधक है। 'ग्राहयधर्मस्तद अंशेन व्याप्तो हेतुः।' 'प्रमाणसमुच्चय' में उल्लेखित दिङ्गनाग के इस कथन में व्याप्ति सिद्धान्त निहित है जिसे आगे चलकर धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा कि 'साध्य का साधन में नियतत्त्व व्यवस्थापन तथा साध्याभाव में साधनाभाव की नियतता का रहना ही अविनाभाव है। १७ साधर्म्य हेतु में साधन व्याप्य और साध्य व्यापक होता है जब कि वैधर्म्य हेतु में साध्याभाव व्याप्य और साधनाभाव व्यापक होता है। 'प्रमाणवार्तिक' में धर्मकीर्ति का कहना है कि अविनाभाव नियम से हेतु पक्षधर्म एवं उसके अंश में व्याप्त होता है। अविनाभाव नियम के अभाव में हेतु हेत्वाभास होता है।२८ 'न्यायबिन्दु' में धर्मकीर्ति ने व्याप्ति को स्वभावप्रतिबन्ध शब्द से उल्लेखित किया है। धर्मकीर्ति का कहना है कि स्वभावप्रतिबन्ध (सत्ता-पारतन्त्र, स्वत: नियत सम्बन्ध) होने पर ही एक अर्थ दूसरे अर्थ को सूचित करता है।९ स्वभावप्रतिबन्ध का अर्थ है स्वभाव के द्वारा प्रतिबन्ध अर्थात् स्वभाव प्रतिबद्धता या प्रतिबद्ध स्वभावता। कारण अथवा स्वभाव के साध्य होने पर कार्य एवं स्वभाव दोनों में ही स्वभाव प्रतिबन्ध सदृश होता है। यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि स्वभावप्रतिबन्ध किसका होता है? और किसमें होता है? अर्थात् कौन प्रतिबद्ध होता है और कौन प्रतिबन्ध का विषय बनता है? धर्मकीर्ति इस प्रश्न का समाधान करते हुए 'न्यायबिन्दु' में कहते हैं कि वह स्वभावप्रतिबन्ध हेतु का साध्य अर्थ में होता है।२० हेतु परायत्त होने के कारण प्रतिबद्ध होता है, किन्तु साध्य अर्थ परायत्त न होने के कारण प्रतिबन्ध का विषय है, प्रतिबद्ध का नहीं। अर्थात् तादात्म्य विशेष होने पर भी जो प्रतिबद्ध है वही ज्ञापक होता है, जो प्रतिबन्ध विषय है वह ज्ञाप्य होता है। क्योंकि उसके साथ अप्रतिबद्ध का उससे अव्यभिचार-नियम का अभाव है, अर्थात् प्रतिबन्ध न होने पर व्यभिचार का नियत अभाव नहीं होता है। जो स्वभाव से जिसके साथ प्रतिबद्ध नहीं है वह उस अप्रतिबन्ध के विषय के बिना नहीं होता, ऐसा उनका अव्यभिचार या अविनाभाव नियम नहीं हैं। अव्यभिचार नियम से ही गम्य-गमक भाव होता है। धर्मकीर्ति के तात्पर्य को धर्मोत्तर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि 'लिङ्ग परायत्त (पराधीन) तथा साध्य अपरायत्त होने के कारण प्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध कहलाते हैं। जो प्रतिबद्ध होता है वह गमक तथा जो प्रतिबन्ध का विषय होता है वह गम्य कहलाता है। जो जहाँ स्वभावतः प्रतिबद्ध नहीं