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बौद्ध एवं जैन दर्शन में व्याप्ति-विमर्श : १०३
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वाला) हो, उसे सम्बन्ध कहा जाता है।' परन्तु यहाँ सम्बन्ध का अर्थ व्याप्ति मानना संगत नहीं होगा । वेदान्तियों का मत है कि व्याप्ति की स्थापना अतीत अव्यभिचारी साहचर्य के अनुभव पर अवलम्बित है । अतीत में यदि दो वस्तुओं का साहचर्य देखा जाय, अर्थात् बराबर उन्हे एक साथ देखा जाय तो दोनों में व्याप्ति का सम्बन्ध अवश्य मानना चाहिए। 'व्यभिचार दर्शनम् सति सहचार दर्शनम्' अर्थात् यदि दो वस्तुओं को बराबर एक साथ देखें और उनका व्यभिचार (अपवाद) देखने में नहीं आये तो दोनों में साहचर्य का सम्बन्ध मानना चाहिए। नैयायिकों का भी वेदान्तियों के समान ही मत है कि व्याप्ति की स्थापना साहचर्य अनुभव पर आधारित है, ° जिसका अतीत में कोई व्यतिक्रम नहीं हो। न्याय व्याप्ति स्थापना के लिए अन्वय- व्यतिरेक प्रणाली की सहायता लेता है। किसी भी व्यभिचार की अनुपस्थिति व्याप्ति निश्चय में सहायक है। लेकिन नियत सम्बन्ध की पुष्टि के लिए व्याप्ति का अनौपाधिक अर्थात् उपाधिविहिन होना आवश्यक है। इन सभी की पुष्टि के लिए नैयायिक तर्क का सहारा लेते हैं। अतः नैयायिकों की व्याप्ति स्थापना के लिए अन्वय, व्यतिरेक, व्यभिचाराग्रह, उपाधिनिरास एवं तर्क-प्रणाली व्याप्ति सम्बन्ध को पुष्टि प्रदान करते हैं। नव्यनैयायिक गंगेश ने व्याप्ति विषयक इक्कीस मतों का पूर्वपक्षीय व्याप्ति लक्षणों के रूप में उल्लेख किया है। उन्होंने व्याप्ति स्थापनार्थ, व्याप्तिपंचक, सिंहव्याघ्र एवं व्यधिकरण, जिसमें व्याप्ति पंचक में पांच, सिंहव्याघ्र में दो एवं व्यधिकरण में चौदह लक्षणों के माध्यम से व्याप्ति स्थापन का प्रयास किया है। ११ कणाद ने व्याप्ति के स्थापनार्थ ‘प्रसिद्धि' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि जो हेतु प्रसिद्धि पूर्वक होता है वही सद्हेतु कहलाता है। प्रसिद्धि के अभाव में हेतु सद्हेतु न रहकर हेत्वाभास हो जाता है।१२ अतः ‘प्रसिद्धि' के ज्ञान के अभाव में लिंग के ज्ञान से अनुमिति होना सम्भव नहीं है। 'मीमांसासूत्र' मे व्याप्ति निरूपण स्पष्टतया उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु सबर स्वामी द्वारा अनुमान के लक्षण में 'ज्ञात सम्बन्धस्य' पद का आवश्यक रूप से सन्निवेश किया गया है। ३ 'मानमेयोदय' में नारायण भट्ट ने साध्य और साधन के स्वाभाविक सम्बन्ध को व्याप्ति कहा है । १४ चित्रस्वामी के अनुसार नियम रूप सम्बन्ध ही व्याप्ति है। दृश्यमान् देश, काल आदि में जो हेतु का साध्य के साथ सहभाव परिलक्षित होता है, वह ही नियम है। १५ प्रभाकर के मतानुसार व्याप्ति लक्षण का विवेचन करते हुए शालिकनाथ ने 'प्रकरणपञ्चिका' में लिखा है कि 'जिसका जिसके साथ अव्यभिचरित तथा नियत कार्य-कारण-भाव आदि सम्बन्ध हो वही सद्हेतु हो सकता है तथा इस प्रकार का नियत तथा अव्यभिचरित कार्य-कारण-भाव आदि सम्बन्ध ही व्याप्ति कहलाता है । १६ इसी बात को अभिव्यक्त करने के लिए अनुमान लक्षण में 'ज्ञात सम्बन्ध नियमस्य पद का उपादान किया गया है।