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८८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
नहीं पायी जाती है। अतः इस जन्म के या जन्मान्तर के दृढ़ अभ्यास से दृढ़ता को प्राप्त हुई जो पूर्वोक्त जाग्रत् प्रतीति है, उसी को महाजाग्रत् कहा गया है।
४. जाग्रत्स्वप्न - जाग्रत् अवस्था का दृढ़ या अदृढ़ जो सर्वथा तन्मयात्मक मनोराज्य है, इसी को 'जाग्रत्स्वप्न' कहते हैं। वह कई प्रकार का होता है - जैसे एक चन्द्रमा की जगह दो चन्द्रमा का दर्शन, सीपी के स्थान पर चाँदी की प्रतीति और मृगतृष्णादि का भान । प्रचलित भाषा में इस प्रकार के ज्ञान को भ्रम कहते हैं। इसका उदय कल्पना द्वारा जाग्रत् दशा में होता है इसलिए इसका नाम जाग्रत् स्वप्न है।
५. स्वप्न - महाजाग्रत् अवस्था के अन्तर्गत निद्रा के समय अनुभव किये हुए विषय के प्रति जागने पर जब इस प्रकार का भाव हो कि यह विषय असत्य है और इसका अनुभव मुझे अल्प समय के लिये ही हुआ था, उस ज्ञान का नाम स्वप्न है।
६. स्वप्नजाग्रत् - जब अधिक समय तक जाग्रत् अवस्था के स्थूल विषयों और स्थूल देह का अनुभव न हो तो स्वप्न ही जाग्रत के समान होकर महाजाग्रतसा मालूम पड़ने लगता है । स्थूल शरीर के रहते हुए अथवा न रहते हुए जब इस प्रकार का अनुभव होता है तो उसे स्वप्न जाग्रत कहते हैं।
७. सुषुप्ति - पूर्वोक्त छः अवस्थाओं का परित्याग करने पर जो जीव की जड़ अवस्था है, वही भावी दुःखों का बोध करानेवाले बीजरूप अज्ञान से सम्पन्न सुषुप्ति है। इस अवस्था में संसार के तृण, मिट्टी, पत्थर आदि सब ही पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म रूप से वर्तमान रहते हैं।
इस प्रकार से ये सात प्रकार की अज्ञान की भूमिकायें हैं जो नाना प्रकार के विकारों तथा लोकान्तर-भेदों से युक्त होने के कारण निन्द्य एवं त्याज्य बतायी गयी हैं।
अज्ञान को नष्ट कर आत्मतत्त्व का बोध करानेवाली ज्ञान की सात भूमिकायें हैं। मुक्ति इन भूमिकाओं से परे है। मोक्ष और सत्य का ज्ञान ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जिसको सत्य का ज्ञान हो गया है वह जीव फिर जन्म नहीं लेता । ज्ञान की सात भूमिकायें इस प्रकार हैं - शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुर्यगा। इनके अन्त में मुक्ति है जिसको प्राप्त करके शोक नहीं रहता। इन भूमिकाओं का वर्णन इस प्रकार है -
१. शुभेच्छा - वैराग्य उत्पन्न होने पर इस प्रकार की इच्छा कि मैं अज्ञानी क्यों रहूँ, क्यों न शास्त्र और सज्जनों की सहायता से सत्य को जानूँ शुभेच्छा कहलाती है। शास्त्र - निषिद्ध कर्मों का मन, वाणी और शरीर से त्याग, निष्काम यज्ञ, दान आदि अनुष्ठान से उत्पन्न संन्यास, मुक्तिपर्यन्त रहने वाली श्रवण आदि में प्रवृत्ति के
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