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९८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
वैदिक परम्परा में एक ओर तो यज्ञ तथा उसमें दी जाने वाली बलि को महत्त्व, दिया जा रहा है, युद्ध को धर्मानुकूल भी बताया जा रहा है, तो दूसरी ओर अहिंसा की महिमा उच्च स्वर में गाई जा रही है। यज्ञ के फल से भी अहिंसा के फल को अधिक बताया जा रहा है। ऐसा क्यों? यहाँ तो निश्चित रूप से हिंसा पर अहिंसा का प्रभाव दिखाई पड़ रहा है। यह सोचने और समझने की बात है आखिर ऐसा हुआ कैसे? इस सम्बन्ध में अनुमान किया जा सकता है कि महाभारत काल की हिंसावादी धारा को अहिंसा की दिशा में प्रेरित करने वाले कोई और नहीं, बल्कि जैन धर्म के २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे। अरिष्टनेमि कृष्ण के चचेरे भाई थे। अहिंसा के महत्त्व को देखते हुए उन्होंने अपनी शादी ही नहीं बल्कि पूरी सांसारिकता को त्याग दिया
और तपस्या करने के लिए पर्वत पर चले गए। कथा कुछ इस प्रकार है- अरिष्टनेमि जब विवाह के योग्य हुए तो सामान्य औपचारिकता के साथ शादी निश्वित की गई। पूरी तैयारी के साथ बारात कन्यापक्ष के दरवाजे पर पहुँची। वहाँ अनेक पशु-पक्षी बँधे हुए थे, जो क्रन्दन कर रहे थे। उन्हें देखकर अरिष्टनेमि ने उन सबके बँधे होने का कारण पूछा तो उत्तरस्वरूप लोगों ने बताया कि इन पशु-पक्षियों को मारकर बारातियों को भोजन कराया जाएगा। उस निर्दयतापूर्ण कार्य को सोचकर अरिष्टनेमि का दिल दहल गया, करुणा प्रवाहित हो चली। उस अमानुषिक कार्य को रोकने के लिए उन्होंने अपनी शादी का विचार त्याद दिया और संन्यास धारण कर अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए तपस्या हेतु पर्वत पर चले गये। यह सुनकर उनकी होने वाली पत्नी ने भी संन्यास ले लियातपस्या पूरी होने पर अरिष्टनेमि जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हुए तथा अहिंसा के आलोक से समाज को प्रकाशित किया। उनके प्रयास एवं प्रभाव से वैदिक परम्परा के बहुत से आचार्यों ने भी अहिंसा के मार्ग को अपनाया। सम्भवत: यही कारण है कि 'महाभारत' में यज्ञ ही नहीं, बल्कि अहिंसा का महत्त्व भी सामने आता है।
श्रमण परम्परा की दूसरी शाखा बौद्ध दर्शन का भी वैदिक दर्शन पर प्रभाव दिखाई देता है। बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित शून्यवाद में 'शून्य' शब्द को अभाव, अनिर्वचनीयता आदि अर्थों में लिया गया है। कुछ विद्वान् 'शून्य' का विवेचन अभाव के सन्दर्भ में करते हैं। 'छान्दोग्योपनिषद्' का यह उद्धरण 'तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं तस्मादसतः सज्जायत।' उस सिद्धान्त की ओर संकेत करता है जहाँ से 'शून्यवाद' या 'असत्वाद' का प्रस्फुटन होता है। शंकराचार्य ने भी अपनी टीका में इस अवतरण का संकेत (बौद्ध सिद्धान्त) जो सृष्टि के आरम्भ में एकमात्र 'सदभाव' की सत्ता को स्वीकार करता है, की ओर किया है। जो लोग शून्य का विवेचन