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वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं की दार्शनिक पारस्परिकता : ९९ 'अनिवर्चनीयता' के सन्दर्भ में करते हैं उनका कहना है कि शून्य का मतलब अभाव नहीं है। परमतत्त्व शून्य है, ऐसा कहने का तात्पर्य परमतत्त्व का अभाव नहीं है, बल्कि शून्य शब्द का व्यवहार अनिवर्चनीयता के लिए हुआ है। परमतत्त्व सत्, असत्, सत्असत्, न सत्-न असत् किसी भी कोटि में नहीं आता है। इसका कोई वर्णन नहीं हो सकता है। यही बात शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवाद में कही है। ब्रह्म भी सत्, असत्, सत्-असत्, न सत्-न असत् किसी कोटि में नहीं आता है। वह सत्-असत् विलक्षण है। विलक्षण होने से उसका किसी प्रकार से वर्णन नहीं किया सकता है। अत: अनिवर्चनीय है। इसी आधार पर शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाता है। डॉ० राधाकृष्णन् कहते हैं कि कतिपय व्यक्तियों के लिए इस (शून्य) का अर्थ अभावात्मक है और अन्यों के लिए यह एक स्थिर, इन्द्रियातीत और अव्याख्येय तत्त्व है जो सब वस्तुओं के अन्दर आधार रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन के अनात्मवाद को ‘कठोपनिषद्' के इस 'येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।'' उद्धरण में गर्भावस्था रूप में देखा जा सकता है।
इन तथ्यों के अतिरिक्त आपसी आदान-प्रदान की एक और बात सामने आती है। प्रारम्भ में श्रमण परम्परानुयायियों ने वैदिक यज्ञ, पूजा-पाठ आदि कर्मकाण्डों का विरोध किया, लेकिन बहुत दिनों तक वे पूजा-पाठ से अपने को वंचित नहीं रख सके। वे लोग धीरे-धीरे पूजा-पाठ के पक्षधर बन गये। फलस्वरूप जैन मतावलम्बियों ने भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ, भगवान महावीर आदि तीर्थंकरों की पूजा शुरू कर दी तथा बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध की मूर्ति की पूजा होने लगी। आज भी बौद्ध एवं जैन मन्दिरों में मूर्तियों की पूजा होती है। जैन परम्परा में तो एक शाखा ही है जिसे मूर्तिपूजक कहते हैं। उस शाखा के लोग विधिवत पूजन-अर्चन करते हैं। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में मूर्तिपूजा होती है ठीक उसी तरह वे लोग भी अपने इष्ट देवीदेवताओं की पूजा अर्चना करते हैं। यहाँ यज्ञ के अनुष्ठान में प्रयुक्त 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण भी वे करते हैं, यद्यपि उनके पूजन में अग्नि का व्यवहार नहीं होता है। पूजन की जो भी प्रक्रिया श्रमण परम्परा में अपनाई गई है वह वैदिक परम्परा के प्रभाव के कारण है। इस तरह वैदिक तथा श्रमण परम्पराएँ प्राचीन काल से एक-दूसरे को प्रभावित करती रही हैं जिससे इन दोनों की पारस्परिकता के प्रमाण मिलते हैं।
ऊपर्युक्त उद्धरणों से यह तो स्पष्ट है प्राचीन काल में वैदिक और श्रमण दर्शनों के जो भी विरोधात्मक प्रारूप रहे हों लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध हैं। दोनों धर्म एक-दूसरे के समन्वय से बने हैं इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता।