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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
नहीं होती अर्थात् भाव पुनः विषय की ओर नहीं लौटते। आध्यात्मिक विकास के क्रम में गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है, उसके काम आदि वासनात्मक भाव भी समूल नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है।
१०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान - मोहनीयकर्म की २८ कर्म-प्रकृतियों में से २७ कर्म-प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रह जाता है तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है। आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ के शेष रहने के कारण ही इस गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय है।
११. उपशान्तमोह गुणस्थान - आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था में साधक उपशम-विधि द्वारा कषायों को दबाकर ही प्रवेश करता है। जो साधक इस विधि द्वारा आगे बढ़ते हैं, उनके पतन की सम्भावना निश्चित रहती है। 'गोम्मटसार' में कहा गया है कि जिस प्रकार शरद ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे बैठ जाने से स्वच्छ दिखाई पड़ता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर पुन: मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्मजल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्मशुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं। यही कारण है कि उपशम-विधि के द्वारा आध्यात्मिक विकास करने वाला साधक साधना के मार्ग में उच्च स्तर पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है।
१२. क्षीणमोह गुणस्थान - इस अवस्था में साधक क्षायिक विधि के द्वारा दसवें गुणस्थान से सीधे बारहवें गुणस्थान में आ जाता है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाले संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि संघर्ष के कारणरूप कोई भी वासना शेष नहीं रहती। ग्यारहवें गुणस्थान की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान की यही विशेषता है कि विकास की भूमि में साधक के पतन की कोई सम्भावना नहीं रहती है।
१३. सयोगकेवली गुणस्थान - जैन दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार को 'योग' संज्ञा से विभूषित किया गया है और इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगकेवली गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में आने वाला साधक, साधक की श्रेणी में नहीं रह जाता और न ही उसे सिद्ध ही कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में कुछ कमी रहती