________________
श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३
अप्रैल-सितम्बर २००७
वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं की दार्शनिक पारस्परिकता
डॉ. विजय कुमार
-
सामान्यत: पारस्परिकता से सहयोग का सम्बन्ध या आपसी आदान-प्रदान का सम्बन्ध माना जाता है। किन्तु इससे पारस्परिकता की आंशिक अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि वास्तव में पारस्परिकता के अन्तर्गत सहयोग और असहयोग, मेलमिलाप तथा विरोध दोनों ही आते हैं। वैदिक परम्परा तथा श्रमण परम्परा के बीच ऐसे ही सम्बन्ध हैं- विरोध एवं आपसी आदान-प्रदान के।
वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा में निम्नलिखित सैद्धान्तिक भेद हैं१. वैदिक परम्परा ईश्वरवादी है, जबकि श्रमण परम्परा अनीश्वरवादी है।
२. वैदिक परम्परा वेदों पर आधारित है, लेकिन श्रमण परम्परा के अपने स्वतंत्र साहित्य हैं- जैनागम और त्रिपिटक।
३. वैदिक परम्परा वर्ण-व्यवस्था को मान्यता देती है, जबकि श्रमण परम्परा में वर्ण जैसी कोई चीज नहीं है।
४. वैदिक परम्परा यज्ञ को महत्त्व देती है जिसमें बलि-प्रथा है। इसमें कहा गया है कि 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।' अर्थात् वेदों में प्रतिपादित हिंसा हिंसा नहीं है। श्रमण परम्परा अहिंसावादी है। यह मानती है कि सामान्य व्यवहार में अथवा धर्म कार्य में की गई हिंसा हिंसा ही है और कुछ नहीं।
५. वैदिक परम्परा में ब्राह्मण ग्रन्थ तथा ब्राह्मण वर्ण की प्रधानता है जिसके कारण इसे ब्राह्मण परम्परा भी कहते हैं। श्रमण परम्परा में क्षत्रियों की प्रधानता है, इसलिए इसे क्षत्रिय परम्परा भी कहते हैं।
वैदिक परम्परा का श्री गणेश वेदों से होता है जिसका दार्शनिक रूप उपनिषदों में मिलता है। औपनिषदिक दर्शन ब्रह्मवादी है। ब्रह्म निरपेक्ष, निर्विकल्प तथा नित्य होता है। किन्तु वह ब्रह्म व्यवहार की दृष्टि से किसी काम का नहीं होता है। * प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी० आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी।