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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ अप्रैल-सितम्बर २००७
जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में ज्ञान की क्रमागत अवस्थाओं का विवेचन
डॉ० मनोज कुमार तिवारी*
साधना-पद्धति में आध्यात्मिक विकास या नैतिक विकास का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। चाहे वह वैदिक पद्धति हो अथवा अवैदिक, सभी में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार किया गया है। आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक रूप में चारित्रिक विकास की संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है, क्योंकि चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर ही आध्यात्मिक विकास की भूमिओं या अवस्थाओं का सहज रूप में अनुमान किया जाता है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य माना गया है। यदि हम पारिभाषिक रूप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि आत्मा का स्वरूप में स्थित हो जाना ही आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति है। यह साधक का परम लक्ष्य भी है। साधक को स्व-स्वरूप में स्थित होने के लिए साधना की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। यद्यपि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय एवं सुखमय है।
___ मोक्ष-प्राप्ति के उत्तम साधन क्या हैं - इस विषय पर मतभेद है, लेकिन 'योगवासिष्ठ' का स्पष्ट मत है कि ज्ञान के सिवाय मोक्ष का कोई उपाय नहीं है। वह ज्ञान केवल वाचिक ज्ञान नहीं है, न वह तर्कमात्र है, बल्कि वह आचारनिष्ठ भी है। मुक्ति का अनुभव करने वाला ज्ञान व उसका अनुभव वास्तविक होना चाहिए, केवल कथन मात्र नहीं। ब्रह्मदृष्टि प्राप्त जीव को उस दृष्टि के अनुसार व्यवहार भी करना है। यदि हमारा जीवन हमारी उच्चतम दृष्टि के अनुसार नहीं है तो हमारा ज्ञान परिपक्व ज्ञान नहीं है। केवल वाद-विवाद और जीविका के लिए जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह ज्ञान ऐसा नहीं है, जो मोक्ष पद दिला सके। ज्ञानी वह है जिसका जीवन आध्यात्मिक है। यदि जीवन को ऊँचा बनाने के लिए ज्ञान प्राप्त नहीं किया, बल्कि केवल नाम, यश और जीविका आदि के लिये ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया है, तो ऐसे ज्ञानी को ‘योगवासिष्ठ' में ज्ञानी न कहकर 'ज्ञानबन्धु' कहा गया है। * अंशकालिक प्रवक्ता, तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी