________________
तंत्र दर्शन में ज्ञान का स्वरूप : ७९
पर से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय कर्मों का आवरण हट जाता है तब आत्मा अपने स्व-स्वरूप में आ जाती है।
तंत्र दर्शन भी सभी भारतीय दर्शनों की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणों की मान्यता देता है किन्तु तंत्र अन्य दर्शनों से भिन्न इन सभी प्रमाणों के मूल में चेतना को मानता है। तंत्र दर्शन (काश्मीर शैव दर्शन ) के अनुसार चेतना ही इन सभी प्रमाणों का आधार है और चेतना ही इन सभी प्रमाणों को प्रकाशित करती है। इस प्रकार चेतना या चिति यथार्थ प्रमाण है । चिति को एकमात्र यथार्थ प्रमाण प्रतिपादित करने के क्रम में तंत्र दर्शन के समक्ष सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि यह किस प्रकार ज्ञात होता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान का यथार्थ साधन है। यहाँ शैव दर्शन कहता है कि हमारी बुद्धि या चेतना प्रत्यक्ष की सत्यता को जान लेती है, अर्थात् चेतना ही प्रत्यक्ष के माध्यम से प्रत्यक्ष कराती है, क्योंकि मात्र ज्ञानेन्द्रियों का विषय के साथ सन्निकर्ष हो जाना ही प्रत्यक्ष को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित नही करता । हमारी चेतना ही ज्ञानेन्द्रिय तथा विषय के संयोग द्वारा ज्ञान प्राप्त करती है और वही प्रत्यक्ष को प्रमाण रूप में प्रतिपादित करती है। आगम प्रमाण के विषय में कहा गया है कि आगम अन्त: विचार या ईश्वर के ज्ञान की भाषीय अभिव्यक्ति है जो चैतन्य स्वरूप है, अतः आगम प्रमाण के रूप में चेतना या चिति ही सिद्ध है।
जैन दर्शन भी चेतना अर्थात् आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्तर्गत वह अवधि, मनः पर्यव तथा केवलज्ञान को मानता है तथा इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत रखता है । मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। जैनों के अनुसार आप्तवचन या शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान ही आगम या श्रुत ज्ञान है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार आगम प्रमाण का अन्तर्भाव अनुमान में ही अन्तर्भूत है, क्योंकि शब्दादि से सम्बद्ध परोक्ष अर्थ का बोध अनुमान से होता है, जो अनुमान काही शब्दान्तर है। समस्त प्रमाणों में प्रत्यक्ष एक ऐसा प्रमाण है जिसे सभी भारतीय दर्शनों के सम्प्रदायों ने स्वीकार किया है, भले ही परिभाषा एवं स्वरूप भेद को लेकर कतिपय मतवैभिन्नता है । प्रत्यक्ष का प्रयोग प्रमाण और प्रमा दोनों ही अर्थों में किया जाता है, इसे यथार्थ ज्ञान का साधन एवं साध्य दोनों माना जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण सभी प्रमाणों का आधार है इसलिए सभी प्रमाणों में इसका विशेष महत्त्व है।
तंत्र दर्शन के अनुसार आत्मा अथवा चेतना ही ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से प्रत्यक्ष तथा व्याप्ति आदि साधनों के द्वारा अनुमान करती है, किन्तु सांख्य दर्शन में यह कार्य बुद्धि द्वारा सम्पादित होना माना गया है, न कि सीधे पुरुष अथवा आत्मा