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८२ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
__ इस ज्ञान को पूर्णतया प्राप्त करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। ज्ञान का अभ्यास क्रमश: होता है और उस क्रम का एक ही जीवन में आरम्भ और समाप्त होना भी साधारणतया सम्भव नहीं है। अत: ज्ञान को प्राप्त करने और उसको अभ्यास द्वारा सिद्ध करने में अनेक जन्म लग जाते हैं। कितने समय और कितने जन्मों में ज्ञान की सिद्धि और उससे जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होगी यह प्रत्येक व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। जिनमें अधिक लगन होती है और जो अधिक यत्न करते हैं, वे जल्द ही परम पद को प्राप्त कर लेते हैं। जब साधक को अत्यन्त तीव्र वैराग्य और तीव्र मुमुक्षा होती है तब उसे क्षणभर में मोक्ष का अनुभव हो जाता है। इसलिए मोक्ष की वासना होने और मोक्ष का अनुभव होने में कितने समय का अन्तर है, यह नहीं बताया जा सकता। ज्ञानी और विद्वान् लोग केवल इसी बात का निर्णय कर सकते हैं कि ज्ञान-मार्ग का क्रम क्या है, किन-किन सीढ़ियों पर चढ़कर ज्ञान की सिद्धि का इच्छुक अपने ध्येय पर पहुँच सकता है। ज्ञान के मार्ग पर जो विशेष क्रमिक अवस्थाएँ आती हैं उन्हें 'योगवासिष्ठ' में भूमियाँ अथवा भूमिकायें कहा गया है। जैन दर्शन ने इनका नाम गुणस्थान रखा है, तो पातञ्जलयोग में योग के अंग नाम से विभूषित किया है। जैन दर्शन के अनुसार चौदह (१४) गुणस्थान हैं, बौद्धों के अनुसार दस भूमियाँ हैं, पतञ्जलि के अनुसार योग के आठ अंग हैं। 'योगवासिष्ठ' ने ज्ञान की सात भूमिकाओं को स्वीकार किया है। हम यहाँ पर जैन दर्शन के चौदह गुणस्थानों एवं 'योगवासिष्ठ' की सात भूमिकाओं का विवेचन करेंगे।
जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास-क्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गयी हैं जिन्हें चौदह गणस्थान के नाम से जाना जाता है। आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान जैन चारित्र विकास की चौदह सीढ़ियाँ हैं। साधक को इन्हीं सीढ़ियों से चढ़ना-उतरना पड़ता है। आत्मा की विकासप्रक्रिया में उत्थान-पतन का होना स्वाभाविक है। आत्मशक्ति की विकसित और अविकसित अवस्था को ही जैन परम्परा में गुणस्थान कहा गया है। चौदह गुणस्थान इस प्रकार हैं - (१) मिथ्यात्व (२) सास्वादन (३) मिश्रदृष्टि (४) अविरत सम्यक्दृष्टि (५) देश-विरति सम्यक्-दृष्टि (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (९) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोग केवली और (१४) अयोग केवली। प्रथम से चतुर्थ गणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवे से बारहवें गणस्थान तक का विकास-क्रम सम्यक्-चारित्र से सम्बन्धित है। तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है।