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८० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
या चेतना के द्वारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन चेतना अथवा आत्मा को स्वयं प्रमाणित मानता) है। आचार्य उत्पलदेव ने 'ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शनी' में कहा है कि ज्ञान की हर प्रक्रिया ज्ञाता का पूर्व अस्तित्व सिद्ध करती है। बिना ज्ञाता के ज्ञान नहीं हो सकता। यदि आत्मा (चेतना) का निषेध किया जाय तो निषेधकर्ता के रूप में आत्मा (चेतना) का अस्तित्व स्वतः मान्य होगा।
तंत्र दर्शन में चेतना के दो रूप माने गये हैं- प्रथम निम्नतर चेतना अथवा पशुज्ञान और द्वितीय उच्चतर चेतना अथवा शिवज्ञान । पशुज्ञान के स्तर पर चेतना मल से आबद्ध रहती है। इसलिए इस स्तर पर ज्ञान सीमित अथवा अपूर्ण रहता है। शिवज्ञान का स्तर चेतना की उच्चतर अवस्था है, जहाँ चेतना मल आदि बन्धन से सर्वथा मुक्त है | आगम चेतना की उच्चतम अवस्था की अभिव्यक्ति है। शिवज्ञान प्राप्त योगी अथवा मुक्तात्मा स्वयं शिव ही है और आगम योगियों द्वारा अनुकूल किये गये तथ्यों का संग्रह है।
अतः तंत्र दर्शन का मूल मंत्र यह है कि वस्तु के ज्ञान प्राप्ति में चेतना सक्रिय रहती है। संवेदन प्रदत्त प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ज्ञान का रूप तभी लेते हैं जब मन क्रियाशील होकर उन्हें ग्रहण करता है। अतः ज्ञान यथार्थतः क्रिया है।
संदर्भ-सूची
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इयमेव च संवित्स्वभावता । ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी, भाग १, पृ० ३२
वही, पृ० ३
प्रकाशएव च आत्मा तत् न तत् कारक व्यापाठात् प्रमाण। व्यापाराऽपि नित्यवत् स्वप्रकाश त्वरचापि तत्र भावात् । वही, पृ० १८
सर्प आत्मानमात्मना वेष्यति । स्याद्वादमंजरी, पृ० ४३
ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी, २/३/२
सर्वप्रमाणानाम् प्रत्यक्ष पूर्वत्वात् । न्या० वा० तात्पर्य टीका, १-३
कर्तरि ज्ञातारि स्वात्मन्यादि सिद्धे महेश्वरे ।
अजडात्मा निषेध वा सिद्धि वा विदधीतकः ।। ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी १.१.२
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