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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयाँ सह।
अविद्यया मृत्युं तीविद्ययाऽमृतमश्नुते।।' इत्यादि उपनिषद्वचनों औरसर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।
इस श्रीमद्भगवद्गीतोक्ति का यही वास्तविक आशय है। अतएव भारतीय सनातन-धर्म, प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों को सोपान-क्रम से स्वीकार करता है और साधनसाध्य की भाँति इनमें भिन्नता होते हुए भी परस्परोपकारत्व देखकर यथा ऽधिकार दोनों को उपयोगी और समयानुसार करणीय मानता है। आचार्य शङ्कर अपने गीता-भाष्य की भूमिका में कहते हैं
स भगवान् सृष्ट्वेदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुमरीच्यादीनग्रं सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम्। ततोऽन्यांश्च सनकसनन्दनादीनुत्पाद्य निवृत्तिधर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राह्यामास। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृत्ति-लक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च।"
इस प्रकार वैदिक दृष्टि से दोनों का परस्पर सामञ्जस्य है इसलिए यज्ञादि कर्मकाण्डात्मक ब्राह्मण-परम्परा की भाँति निवृत्ति लक्षणात्मिका श्रमण, मुनि या यति परम्परा भी वेदसमर्थित और अभ्यर्हित है और ऋग्वेद से लेकर 'श्रीरामचरितमानस' तक इसकी लोकयात्रा विविध-स्वरूपों में दिखलाई पड़ती है। यह विशुद्ध भारतीय
और दार्शनिक दृष्टि है। किन्तु पाश्चात्य-समीक्षकों के प्रभाव से जो इससे भिन्न विकासवादी, आनुमानिक अथवा कल्पना-प्रवण एक तार्किक दृष्टि आविर्भूत हुई उसके अनुसार श्रमण-परम्परा वेदों की कर्मकाण्डात्मक-पद्धति के प्रति विद्रोहीभावना से उत्पन्न एक सर्वथा अवैदिक विचारधारा या साधना-पद्धति है जिसके बीज वेदों (संहिता ग्रन्थों) में कहीं-कहीं प्राप्त होते हैं बाद में आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इनका विकास होकर पल्लवन-पुष्पन होता गया।
इसके अनुसार वेद, दिव्य या अपौरूषेय न नहीं, अपितु प्राचीन आर्यजाति के गो-पालक और ग्राम्य कृषक-रूप ऋषियों के संवेगात्मक या काव्यात्मक उद्गार मात्र हैं जिन्हें भिन्न-भिन्न लोगों ने भिन्न-भिन्न कालखण्डों में रचा और परम्परा से श्रुतरूप में सुरक्षित रखा। वैदिक संस्कृति यज्ञात्मक कर्मकाण्ड और देवपूजा के अन्ध-विश्वासों से जकड़ी थी इसमें ब्राह्मणों या वैदिक पुरोहितों का प्रभाव था जो प्राय: