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श्रमण, वर्ष५८, अक २-३ अप्रैल-सितम्बर २००७
आप्तोपदेशः शब्दः की जयन्तभट्टीय व्याख्या
डॉ० जयन्त उपाध्याय* संजय कुमार सिंह**
जयन्त भट्ट का शब्द-प्रमाण-विषयक मंत्र, मुख्यत: अक्षपादसूत्र 'आप्तोपदेशः शब्दः' का विश्लेषण है। जब किसी ज्ञान का कारण शब्द या वाक्य होता है, तब वह ज्ञान शाब्द ज्ञान होता है और उसका कारणभूत शब्द ही शब्द-प्रमाण होता है। पागल, भ्रान्त, या संशयित व्यक्ति के शब्द से प्रमा उत्पन्न नहीं होती, अत: केवल वह शब्द, शब्द प्रमाण है जो प्रमा का जनक है। इसीलिए शब्द के प्रमाणत्व का निर्धारण न्यायसूत्रकार ने आप्तोपदेशत्व से किया। सूत्र का 'शब्द' पद लक्ष्य है तथा 'आप्तोपदेशः' पद लक्षण है। आप्तोपदेश पद का समास विग्रह दो प्रकार से हो सकता है- आप्त का उपदेश और आप्त उपदेश। प्रथम विग्रह में आप्तत्व वक्ता का विशेषण है तथा द्वितीय में उपदेश का। न्यायवार्तिककार ने आप्तपद को उपदेश का विशेषण स्वीकार किया है। भाष्यकार के अनुसार आप्तपद का अर्थ यह है कि वह उपदेष्टा जो यथाप्रमित अर्थ का श्रोता के लिए ज्ञान कराने की इच्छा से उपदेश करे, आप्त कहा जायेगा। अर्थ की उपलब्धि आप्ति है, अत: जो अर्थ का (किसी प्रमाण के माध्यम से) साक्षात्कार कर चुका हो आप्त होता है। यह आप्त ऋषि, आर्य, म्लेच्छ कोई भी हो सकता है, परन्तु उसका आवश्यक धर्म अर्थ की उपलब्धि कराना है। किसी अर्थ विशेष के स्वरूप को जानता हुआ व्यक्ति भी उस स्वरूप का यदि अन्यथा प्रकाशन करता है तो वह आप्त नहीं होगा। सम्भवत: इसीलिए वार्तिककार आप्त को उपदेश का विशेषण मानते हैं। आप्तपद के ग्रहण की चरितार्थता की ओर जयन्त भट्ट का संकेत है कि यदि केवल 'उपदेश' शब्द मात्र शब्द-प्रमाण का लक्षण होता है, तो उपदेश और शब्द दोनों पद एक-दूसरे के पर्याय हो जायेगें और तब लक्ष्य-लक्षण भाव की उपपत्ति नहीं होगी। दूसरा दोष यह होगा कि लक्षण में अतिव्याप्ति दोष आ जायेगा, क्योंकि तब ऐसा उपदेश भी प्रमाण की श्रेणी में आ जायेगा जो शाब्द प्रमा को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं, अतः आप्तपद का ग्रहण आवश्यक है। शब्द-लक्षण के प्रसंग में जयन्त भट्ट ने नैयायिकों की विभिन्न * दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ** एस०आर०एफ० (यू०जी०सी०) दर्शन एवं धर्म विभाग, का०हि०वि०वि०, वाराणसी