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५२ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
का भी एक सुदीर्घ इतिहास है और परिवर्तित परिवेश में विविध साम्प्रदायिक संन्यासियों या वैरागियों के रूप में यह अभी भी सुतरां प्रवर्त्तमान देखी जा सकती है । सन्दर्भ
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२.
३.
४.
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८.
९.
ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र २
वही, मन्त्र ११
श्रीमद्भगवद्गीता ४ / ३३ उत्तरार्द्ध
श्रीमद्भगवद्गीता शाङ्करभाष्य का उपक्रम
द्रष्टव्य- डॉ० सीताराम दुबे कृत 'बौद्धसङ्घ का प्रारम्भिक विकास' ग्रन्थ में प्रो० विशम्भर - शरण पाठक का 'पुरोवाक् (प्रकाशक- पूर्वासंस्थान, गोरखपुर १७८८) बृहदारण्यक उपनिषद् ४/५/२२
प्रो० विश्वम्भर शरण पाठक के पूर्वोद्धृत 'पुरोवक्' के पृष्ठ २७ में सूचित रिचर्ड फिक की पुस्तक 'सोशल आगेनाइजेशन' ( पृ० १७२ १७३) का उद्धरण तथा यहीं पर आगे के अनुच्छेद में अभिव्यक्त प्रो० पाठक का अपना अभिमत।
द्रष्टव्य - बृहदारण्यक उपनिषद् ३/५/१
द्रष्टव्य इसी स्थल पर शाङ्करभाष्य
वही
१०.
११. श्रीमद्भागवत, ७।
१२. बृहदारण्यक उपनिषद् ४/५/१-१५
१३. ऋग्वेद, दशममण्डल, १३४ सूक्त
१४. तैत्तिरीआरण्यक १/२३/२.
१५.
कूष्माण्डब्राह्मण, २/७
१६. ऋग्वेद १०/१३ के आरम्भ में सायणभाष्य
१७.
श्रीमद्भागवत ५/३/२०/
१८. यहीं पर श्रीधरी टीका
१९. इसी स्थल पर वंशीधरी टीका
२०. श्रीमद्भागवत ५ / ६ / ७-१०.
२१. वही ११ / २ /२०-२१