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६० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
इस प्रकार वीतरागता युक्त इच्छा और प्रतिपादन-कौशल - ये दोनों धर्म विशेषत: आप्तता के प्रयोजक हैं, क्योंकि वीतराग भी मूक उपदेश देने में असमर्थ होने के कारण आप्त नहीं होता और बोलने में समर्थ भी साक्षात्कृतधर्मा वीतराग न होने के कारण या तो उपदेश ही नहीं करेगा या तद्भिन्न उपदेश करेगा, अत: आप्त नहीं कहा जायेगा।२५ सर्वथा वीतरागत्व बहुत कम लोगों में होता है, अत: बिरले ही लोग आप्त होते हैं।२६ उपर्युक्त विशेषणों से युक्त ऋषि, आर्य और म्लेच्छ सभी आप्त हो सकते हैं। ऋषि लोग वीतराग होते हैं, इसलिए वे सभी आप्त होते हैं, परन्तु आर्यों एवं म्लेच्छों में से कोई विरला ही आप्तता के उक्त लक्षणों वाला होता, अत: विरला ही कोई आप्त होता है। जयन्त भट्ट ने सांख्यशास्त्र के विचारक माठर की मान्यता की ओर संकेत करते हुए कहा है कि लोगों ने दोषक्षय को आप्ति कहा है,२° उनके मत में इतना परिष्कार आवश्यक है कि केवल प्रतिपाद्य अर्थों के विषयक पक्षपात आदि रूपों वाले दोषों का क्षय स्वीकार करें, अन्यथा उनका आप्त का लक्षण दोषपूर्ण हो जायगा, क्योंकि ऐसा न मानने पर लोक-व्यवहार में आने वाली आप्तता की अवधारणा बाधित हो जायेगी, क्योंकि प्रतिपाद्य अर्थ में अपूर्णत्वादि दोषों का राहित्य वहाँ उपलब्ध न होगा। जयन्त भट्ट का मत है कि आप्त के ये सभी विशेषण ईश्वर में घटित होते हैं। धर्म ईश्वर को प्रत्यक्षगोचर होता है, अत: वह साक्षात्कृतधर्मा है। परमकारुणिक ईश्वर ने वेद के रूप में यथादृष्ट अर्थ का उपदेश किया है, अतएव ईश्वर परमाप्त-प्रमाण है और परमाप्त ईश्वर के उपदेश होने से वेद शब्द-प्रमाण हैं, जिन्हें आगम-प्रमाण भी कहा जाता है। संदर्भ :
१. अत्र शब्द इति लक्ष्यपदम्। आप्तोपदेश इति लक्षणम। तात्पर्यटीका, १/१७. २. तस्माद् आप्तश्चासावुपदेशश्चेति युक्तम्, नाप्तस्योपदेश इति। नैष: दोषः। - न्यायवार्तिक,
१, १, ७. ३. आप्त: खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टयार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त: उपदेष्टा। -
न्यायभाष्य, १, १, ७. ४. उपदेश: शब्द: इत्युच्यमाने पर्यायमात्रोच्चारणादकारके शब्दमात्रे प्रसक्तिः। - न्यायमंजरी, ___ सम्पा० - महो० गंगाधर शास्त्री तैलंग, ई० जे० तजरस एण्ड कं० बनारस,
१८९५, भाग १, पृ० १५०. ५. न्यायसूत्र, १, १, ४. ६. वही, १, १६.