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आप्तोपदेशः शब्दः की जयन्त भट्टीय व्याख्या
मान्यताओं का उल्लेख किया है। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि शब्द - लक्षण के निर्धारण के सम्बन्ध में सूत्रकार के बाद जयन्त भट्ट के काल तक बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ के फलस्वरूप नैयायिकों में कई मत प्रचलित हो गये थे। जयन्त भट्ट ने यहाँ किसी मत विशेष का खण्डन - मण्डन नहीं किया है, किन्तु उनका अपना समर्थन विभिन्न पदों के अध्याहार पक्ष को है, क्योंकि अन्यत्र भी इन्होंने इन पदों के अध्याहार को आवश्यक समझा है।
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'प्रत्यक्ष लक्षकसूत्र" के कुछ पदों को जयन्त भट्ट ने प्रमाण - लक्षण के संदर्भ में अध्याहृत किया है, अतः वे पद यहाँ भी अध्याहरणीय हैं। 'उपदेश: शब्द:' में उपदेश पद शब्द का पर्याय मात्र है जिसकी प्रसक्ति बोध के कारक न होने वाले शब्द में भी होगी अतः जयन्त भट्ट इसके लिए 'उपमान लक्षकसूत्र' से साध्य साधन पद का अध्याहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि केवल वह शब्द शब्द- प्रमाण होगा जो किसी साध्य का साधन हो अर्थात् कारण हो तब भी उत्तरवर्ती शब्द का कारण होने के कारण वह पूर्ववर्ती शब्द प्रमाण की प्रसक्ति से मुक्त नहीं होगा, अतः प्रत्यक्षसूत्र से 'ज्ञान' पद का अध्याहार होना चाहिए। यह ज्ञान स्मृति, विपर्यय, संशय रूप का भी हो सकता है, जो प्रमा नहीं है, अतः इनके निरास के लिए प्रत्यक्ष- सूत्र से ही 'अर्थ', 'अव्यभिचार' और 'व्यवसायात्मक' पदों की अनुवृत्ति भी आवश्यक है। इस प्रकार अव्यभिचारादि विशेषणों से युक्त यथार्थ ज्ञान का जनक जो उपदेश होगा, उसे ही शब्द- प्रमाण कहेंगे ।" इस मत के अनुसार पूर्वसूत्रों से अध्याहृत आवश्यक पदों से विशिष्ट उपदेश पद ही शब्द- प्रमाण का लक्षण है। आप्तपद का यहाँ कुछ भिन्न प्रयोजन है। आप्तपद शब्द- प्रमाण के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है, वरन् लक्षण के निश्चय के लिए प्रयुक्त हुआ है।' लक्षणविनिश्चय का तात्पर्य यह है कि अव्यभिचारादि विशेषणों वाले यथार्थ ज्ञान का कारणभूत उपदेश शब्द- प्रमाण होता है - यह प्रमाण का लक्षण किया गया। दृष्ट विषयों में प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों की गति होने से लक्षण का निश्चय हो जायेगा। जैसे किसी ने कहा- 'यह नदी एक कोस तक टेढ़ी है' इसे हम प्रत्यक्ष द्वारा देखकर यह कह सकते हैं कि वक्ता का उपदेश प्रमा का जनक था, परन्तु अदृष्ट विषयों में जहाँ अस्मद्विध लौकिक प्राणियों की कोई गति ही नहीं और न ही प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि प्रमाणान्तरों की गति है, उनके विषय में प्रमाण के प्रामाण्य का निर्धारण कैसे होगा ? इसलिए सूत्रकार ने आप्तपद का ग्रहण किया है। " आप्तपुरुष का उपदेश दृष्ट विषयों में अव्यभिचारादि विशेषित प्रमा का जनक देखा जाता है, ठीक इसी प्रकार अदृष्ट विषयों में आप्तका उपदेश अव्यभिचारादि विशिष्ट प्रमा का जनक होगा। लक्षणविनिश्चय का यही ढंग सूत्रकार ने इन्द्रिय लक्षण" के प्रसंग में अपनाया है। इन्द्रियाँ अपने नियत विषय से