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वैदिक श्रमण-परम्परा और उसकी लोक-यात्रा : ४७
अपितु वर्णान्तर्गत ब्राह्मणशरीरी साधक ही उक्त 'ब्राह्मण्य या 'मुनित्व' का सच्चा अधिकारी है यही सिद्ध करती है। यह बात पूर्वोक्त श्रीमद्भागवत के श्लोक में "ब्राह्मणस्य हि देहोऽयम्" वाक्य से पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है अर्थात् 'ब्राह्मणत्व' देह विशेष की भी स्थिति है और एक विशेष साधन की उच्च अवस्था भी हैं। इसमें प्रथम स्थिति आधार है और दूसरी आधेय, अत: 'वर्णब्राह्मण' और 'कर्मब्राह्मण' में भेद की रेखा खींचना कल्पना मात्र हैं बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवलक्य की प्रव्रज्या का प्रसङ्ग भी२२ इसी बात का समर्थन करता है।
यद्यपि मन्त्रसंहिताएँ प्राय: कर्मकाण्ड-परक ही हैं फिर भी यत्र-तत्र वैदिक 'श्रमण' या मुनि-परम्परा का यहाँ भी उल्लेख है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के अन्तर्गत ३ 'केशीसूक्त' का निदर्शन है, यहाँ स्पष्ट रूप से पीत या गैरिक वस्त्र अर्थात् बल्कलधारण करने वाले 'वातरशन' के पुत्र ‘वातरशना'-मुनियों का वर्णन है, यथा
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला। वातस्यानु ध्राजि यन्ति यद्देवासो अविक्षत।। उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम्। शरीरेदमस्माकं यूयं मर्त्तासो अभि पश्यथ।।
आचार्य सायण के अनुसार सात ऋचाओं वाले इस सूक्त के देवता-अग्नि सूर्य और वायु हैं और 'वातरशन' (नामक मुनि) के पुत्र जूति, वातजूति आदि इसके ऋषि हैं। ये सब सूर्याग्नि और प्राणात्मक वायु के उपासक थे और (सायण के अनुसार) पिंशङ्ग और मैले वस्त्र अथवा वल्कल पहनने वाले थे। 'केशी' शब्द से उपलक्षित होने के कारण सम्भवत: इनकी बड़ी-बड़ी जटाएँ भी रहती थीं और ये लोकबाह्य या उन्मत्त अवस्था में प्राय: मौन रहते थे। आधुनिक समीक्षकों ने यहाँ वैदिकेतर परम्परा के (जैन मुनियों के पूर्वरूप) मुनियों या श्रमणों के रूप में इन्हें देखने का प्रयास किया है, किन्तु यह समीचीन नही हैं क्योंकि वैदिक-परम्परा में आगे भी इनका अनेकत्र सादर उल्लेख है जैसे तैत्तिरीय आरण्यक का यह सन्दर्भ
___स प्रजापतिरेकः पुष्करपणे समभवत्। तस्यान्तर्मनसि कामस्समवर्तत। इदं सृजेयम्।
स तपोऽतप्यत्। स तपस्तप्त्वा शरीरमधुनत। तस्य मांसमासीत् ततो अरुणा केतवः वातरशना ऋषय उदतिष्ठन्। १४
इसमें अन्य ऋषियों के साथ वातरशन-सज्ञक ऋषियों की उत्पत्ति प्रजापति से बतलाई गई है। 'कूष्माण्डब्राह्मण' में भी इनका उल्लेख मिलता है,