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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
यथा- वातरशना ह वा ऋषयश्श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुः१५ ध्यातव्य, है कि केशीसूक्त के मन्त्रों में इन्हें 'मुनयः' कहा गया है। किन्तु वहाँ सायण अनुक्रमणी की उद्धृति देते हुए स्पष्ट रूप से इनको इस सूक्त के द्रष्टा ऋषि के रूप में भी प्रतिष्ठित करते हैं
वातरशनपुत्रा जूतिवातजूतिप्रभृतयः प्रत्यूचं क्रमेणर्षयः तथा चानुक्रान्तम्
केशी मुनयो वातरशना जूतिर्वातजूति-र्विप्रजूतिवृषाणकः करिक्रत एतश ऋष्यशृङ्ग श्चैकर्चा कैशिनम्' इति। १५
तैत्तिरीय आरण्यक में भी इन्हें 'ऋषि' ही कहा गया है और 'कूष्माण्ड-ब्राह्मण' भी इनके लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग करते हुए इन्हें ऋषि-रूप में ही व्यपदिष्ट करता है। ऋषि का अर्थ है- 'वैदिकमन्त्रों का द्रष्टा अतएव ये ऊर्ध्वमन्थी सूर्याग्नि और वायु के उपासक ‘मुनि' और श्रमण' होते हुए भी मूलत: ‘ऋषि' ही थे अर्थात् वैदिक परम्परा के प्रतिगामी या विरोधी नहीं थे यह सुतरां स्पष्ट है। आगे श्रीमद्भागवत में भी इनका सन्दर्भ मिलता है और ठीक ऐसी ही शब्दावली वहाँ भी प्रयुक्त है, यथा
भगवान् मेरुदेव्यां धर्मान्दायितु कामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावतार।१७।
___ यहाँ भागवत के प्रसिद्ध और प्रामाणिक टीकाकार श्रीधरस्वामी 'वातरशना' शब्द का अर्थ 'दिगम्बर' अर्थात् वस्त्रविहीन करते हैं। इसके अनुसार यहाँ श्रमण का अर्थ है तपस्वी, 'ऋषि' शब्द का अर्थ है ज्ञानी और 'ऊर्ध्वमन्थिन्' शब्द का अर्थ है नैष्ठिक ब्रह्मचारी।८ इनकी इस व्याख्या को भी स्पष्ट करते हुए आचार्य वंशीधर कहते हैं
वातो वायुस्स एव रशना कटिसूत्रं येषां ते।
श्राम्यन्ति तपन्तीति श्रमणाः। 'श्र तपसि खेदे च। ऊर्ध्वमुमस्थोर्ध्वदेशे मन्थन्ति रुन्धन्ति रेते न तूपस्थदेश इत्यूर्ध्वमन्थिनस्तेषां, येषामुपस्थदेशे रेतः कदापि नायातीति भावः। १९
__ अस्तु ऋग्वेद के वातरशना मुनियों में अवैदिक आर्हत-परम्परा के मुनियों के सद्भाव की कल्पना करना वैदिकपरम्पराऽनभिज्ञत्व ही कहा जाएगा। श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवान् ऋषभदेव जो श्रीविष्णु के अवतार थे ऐसे ही अवधूतो या परमहंसो की चर्या को दिखलाने के लिए प्रकट हुए थे। उनका पथ विशुद्ध वैदिक था। वे पहले सम्राट रहकर प्रवृत्तिमार्ग से निर्विण्ण होकर फिर निवृत्तिमार्ग में आए थे, अतएव