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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ अप्रैल - सितम्बर २००७
धार्मिक सहिष्णुता और धर्मों के बीच मैत्रीभाव जैन- दृष्टिकोण *
डॉ० राजेन्द्र जैन* *
वर्तमान समय में विश्व जिन ज्वलंत समस्याओं का सामना कर रहा है, उनमें धार्मिक-मतान्धता और असहिष्णुवैदकता अत्यन्त जटिल समस्या है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चमत्कारिक प्रगति ने मानव समाज को यातायात और संचार के सुलभ साधन प्रदान किए हैं। परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न राष्ट्रों, संस्कृतियों एवं धर्मों के लोगों से सम्पर्क करने में हजारों किलोमीटर की दूरी भी अब बाधा नहीं रही है। इस दृष्टि से हमारा विश्व सिमटता जा रहा है, परन्तु दुर्भाग्य से आपसी वैमनस्यता एवं घृणा के कारण मनुष्य- मनुष्य के बीच हृदय की दूरी दिन-ब-दिन ज्यादा होती जा रही है। हम आपस में पारस्परिक प्रेम, सहयोग और विश्वास विकसित करने के बजाय आपसी विद्वेष एवं शत्रुता को ही बढ़ावा दे रहे हैं। इस प्रकार हम सह- - अस्तित्व एवं सद्भावना के जीवन मूल्यों की अनदेखी कर रहे हैं। परमाणु-शस्त्रों के प्रति हमारी अंधी एवं उन्मत्त दौड़ इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हम मानवजाति के विनाश की चिता तैयार कर रहे हैं। गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सही कहा था- 'मनुष्य के लिए एक-दूसरे के निकट आकर भी मानवता के दायित्वों (मानवीय गुणों) की उपेक्षा करना निश्चित ही मानवजाति की आत्महत्या की ही प्रक्रिया होगी । "
वर्तमान परिस्थितियों में मानवजाति को बचाने का केवल एक ही उपाय है‘मानवीय समाज में पारस्परिक सहयोग एवं सह-अस्तित्व के जीवन मूल्यों के प्रति दृढ़ विश्वास की भावना विकसित की जाए।' इस हेतु धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न धर्मों के बीच मैत्रीभाव हमारे युग की सबसे पहली जरूरत है।
मानवता : एकता के सूत्र में जोड़ने वाली कड़ी
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निःसंदेह, हम सभी भिन्न-भिन्न आस्थाओं, धर्मों तथा संस्कृतियों से संबंधित हैं। हमारी साधना-पद्धतियाँ और कुछ हद तक हमारे जीने के ढंग भी भिन्न हैं। हमारे * प्रो० सागरमल जैन द्वारा लिखित आलेख 'Religious Harmony and Fellowship of Faiths - A Jain Perspective' का हिन्दी अनुवाद है। ** प्राध्यापक, वाणिज्य विभाग, पं० बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शाजापुर (म०प्र०)